पहली नजर में यह बात सही लगती है और देश-दुनिया की हर बात के लिए सरकार को दोष देना सही नहीं है। लेकिन पेट्रोल-डीजल के दाम के अर्थशास्त्र का बारीकी से विश्लेषण करें तो सरकार दरअसल बेगुनाह नहीं है। बचाव में दिए जा रहे तर्कों में बहुत बड़े छेद हैं। इस मामले में सरकार पर कम से कम चार आरोप हैं, जिनमें पहला है दोगलेपन का। जब यूपीए सरकार के दौरान 2013 में पेट्रोल-डीजल के दाम बढ़े थे तब भी अंतरराष्ट्रीय बाजार में कीमतों में उछाल की वजह बताई गई थी। बीजेपी के तमाम नेताओं ने सीधे प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह को इसके लिए जिम्मेदार बताया था और स्वयं नरेंद्र मोदी ने भी। इस लिहाज से आज भी प्रधानमंत्री ही जिम्मेदार ठहराए जाने चाहिए। लेकिन यह छोटा अपराध है, चूंकि विपक्ष में रहते हुए गैर जिम्मेदाराना बातें हर कोई करता है।
दूसरा आरोप डॉलर के मुकाबले रुपए की गिरावट से संबंधित है। क्योंकि कच्चा तेल आयात किया जाता है इसलिए डॉलर महंगा होने के साथ कच्चे तेल के दाम भी बढ़ते जाएंगे। जब मोदी सरकार ने सत्ता संभाली तब एक डॉलर की कीमत 60 रुपए थी, जबकि आज यह 71 के पार हो गई है। अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल के दाम बढऩे की मार दोगुनी हो गई है। आज सरकार अंतरराष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के उतार-चढ़ाव को वजह बताती है। सच भी है, पर विपक्ष में रहते हुए बीजेपी ने इसके लिए डॉ. सिंह को निकम्मा ठहराया था।
तीसरा और कहीं ज्यादा गंभीर आरोप है सरकार का इस सवाल पर अर्धसत्य बोलना। सरकार देश के सामने पेट्रोल-डीजल की महंगाई का पूरा सच नहीं रख रही है। जब मोदी सरकार सत्ता में आई, तब कच्चा तेल 101 डॉलर प्रति बैरल था। तब दिल्ली में पेट्रोल 71 रुपए और डीजल 57 रुपए के भाव से बिक रहा था। आज कच्चे तेल का दाम एक-चौथाई कम होकर 76 डॉलर प्रति बैरल है, पर दिल्ली में पेट्रोल 79 रुपए (१० फीसदी से अधिक) और डीजल 71 रुपए (२० फीसदी से अधिक ) की दर से बिक रहा है।
पेट्रोल-डीजल के दाम में बढ़ोतरी का सच यह है कि मोदी सरकार के सत्तारूढ़ होने के बाद संयोगवश कच्चे तेल के दाम में भारी गिरावट आई। एक समय तो यह मात्र ३३ डॉलर प्रति बैरल रह गया था। अगर तब उसी हिसाब से दरों को कम होने दिया जाता तो पेट्रोल 24 रुपए और डीजल 19 रुपए प्रति लीटर हो सकता था। लेकिन सरकार ने ऐसा होने नहीं दिया। सरकार ने अपना टैक्स और रिफाइनरी व डीलर का कमीशन बढ़ा दिया। देखादेखी राज्य सरकारों ने भी वैट बढ़ा दिया। जब कच्चे तेल के दाम बढ़े, तब सरकार ने बढ़ोतरी का बोझ सीधे उपभोक्ता पर डालना शुरू कर दिया। तेल के दाम गिरने का फायदा सरकार को हुआ, पर दाम बढऩे का नुकसान उपभोक्ता को हुआ। गौर करने वाली बात यह है कि पेट्रोल का दाम कम तेजी से बढ़ा, लेकिन डीजल का दाम ज्यादा तेजी से बढ़ाया गया जिसकी मार किसानों और मछुआरों पर पड़ी है।
सरकार समर्थक कहते हैं कि सिर्फ केंद्र सरकार दोषी नहीं है, राज्य सरकारें भी दोषी हैं। बात सही है, पर अधिकांश राज्य सरकारें भी तो बीजेपी की ही हैं। राज्य सरकारों की तुलना करें तो दिल्ली और कोलकाता की तुलना में बीजेपी की महाराष्ट्र सरकार ने मुंबई में टैक्स कहीं ज्यादा बढ़ाया है। जैसे भी देखें, बीजेपी पेट्रोल-डीजल की दरों में बढ़ोतरी की जिम्मेदारी से मुक्त नहीं हो सकती।
बीजेपी समर्थक एक और तर्क देते हैं कि सरकार ने पेट्रोल-डीजल सस्ता करने के बजाय सरकारी खजाने में पैसा डाला, कोई चोरी और भ्रष्टाचार नहीं किया और यदि सरकार पेट्रोल-डीजल सस्ता होने देती तो फिजूलखर्ची और प्रदूषण बढ़ सकता था। इस तर्क के साथ वे इस सवाल का भी उत्तर दें कि सरकार ने उस पैसे का क्या किया?
एक अनुमान के मुताबिक मोदी सरकार ने पेट्रोल-डीजल पर अतिरिक्त टैक्स और पेट्रोल-डीजल पर सरकारी खर्च में बचत से करीब छह लाख करोड़ रुपए अतिरिक्त कमाए। कोई समझदार या दूरदर्शी सरकार इस आकस्मिक आय को आने वाली पीढ़ी के लिए भविष्य निधि में डालती या भविष्य में तेल के दाम बढऩे की स्थिति से निपटने के लिए कोई फंड बनाती या ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोत विकसित करने की कोई बड़ी योजना बनाती। लेकिन मोदी सरकार में इस पैसे का इस्तेमाल वित्त मंत्री अरुण जेटली ने अपनी अर्थनीति की दूसरी नाकामियों को ढकने के लिए किया। आने वाली पीढिय़ों के लिए कुछ दूरगामी काम करने का ऐसा अवसर दस-बीस साल में एक बार ही आता है, पर बीजेपी सरकार ने इसे गंवा दिया। राष्ट्रीय संसाधनों की बर्बादी मोदी सरकार पर सबसे बड़ा आरोप है।