मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भले ही कहें, विकास का पहिया आगे की तरफ घूमता है। व्यवस्था में परिवर्तन हो रहा है। लेकिन, एक साल में उप्र में क्या कुछ बदला? पहले की सरकारों में तो एफआइआर दर्ज हो जाती थीं। अब तो पुलिस रिकार्ड में अपराध दर्ज करने से ही परहेज किया जा रहा है। यह सिर्फ एक थाने की बात नहीं है। कमोबेश, हर थाने की यही कहानी है।
न्याय हो ही नहीं बल्कि होते हुए नजर भी आना चाहिए। लेकिन, यहां न्याय का गला घोंटा जा रहा है। पुलिस अपने विश्वसनीय होने का भरोसा नहीं जगा पा रही। योगीराज में पुलिस का इकबाल कम हुआ है। खुद भाजपा के कई विधायकों पर दुष्कर्म जैसे गंभीर आरोप हैं। कुछेक तो जेल में भी बंद हैं। बावजूद इसके सरकार संगीन अपराधों को रोकने के प्रति संजीदा नहीं दिखती। दुष्कर्म जैसी घटनाएं प्रतिकार और सजा से कम नहीं हो सकतीं। इसके लिए मनोवृत्ति बदलने की जरूरत है। ऐसा पुलिस और जनता दोनों को करना चाहिए। लेकिन, यहां तो प्राथमिकी ही दर्ज नहीं हो रही। न्याय तो दूर की कौड़ी है।
घटना यूपी पुलिस के अफसरों का गैर-जिम्मेदाराना रवैया भी उजागर करती है। राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग की सख्त टिप्पणी के बाद बड़े अफसरों ने मामला तो दर्ज करा लिया। लेकिन, दोषी थानेदार पर कार्रवाई अब तक नहीं हुई। क्या गारंटी कि अभयदान के बाद मित्र पुलिस अगली घटना को फिर दबाने की कोशिश नहीं करेगी। यूपी में एनकाउंटर से क्या माहौल सुधरा? अपराधियों में भय का वातावरण बना? शायद नहीं। इसलिए योगी सरकार को अपराध नियंत्रण की कार्ययोजना पर पुनर्विचार करना चाहिए। कानून व्यवस्था और अमन चैन स्थापित करना राज्य सरकार की जिम्मेदारी है। निष्पक्ष न्याय से ही लोकतंत्र मजबूत होगा। रामराज्य स्थापित करने की परिकल्पना करने वालों को इस बात को भी जेहन में रखना होगा।