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Exclusive: देश के लिए खतरा बन गई है रंग बदलती राजनीति

locationनई दिल्लीPublished: Sep 25, 2020 02:34:30 pm

Submitted by:

shailendra tiwari

सिद्धांतों से हटकर कोई भी सुविधाजनक कदम उठा लेते हैं दल, अस्तित्व की रक्षा के लिए नेता और पार्टियां रंग बदलने और एक साथ दो मुंहों से बात करने के लिए विवश हो गए हैं

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बी ते सोमवार को देश के उपराष्ट्रपति और राज्यसभा के सभापति वेंकैया नायडू ने किसान बिल पारित करते समय हुए अशोभनीय हंगामे पर सदन में गहरा दुख व्यक्त किया। उन्होंने कुछ सदस्यों द्वारा घोर अमर्यादित व्यवहार किए जाने को प्रजातांत्रिक मूल्यों का अभूतपूर्व ह्रास बताया। उधर, कांग्रेस के वरिष्ठ नेता अभिषेक मनु सिंघवी ने किसान बिल जैसे अहम मुद्दे पर शंकास्पद तरीके से ध्वनि मत से बिल पारित करने को राजनीतिक नैतिकता की हत्या करार दिया। एक ही घटना पर इन दोनों वरिष्ठ नेताओं के अलग-अलग दृष्टिकोण को जानकर किसी भी आम नागरिक को भावुक हो जाना चाहिए, लेकिन राजनीति के विशेषज्ञ हों या आम जनता, आज कोई भी राजनेताओं के बयानों को गंभीरता से नहीं लेता।
नेताओं की अवसरवादिता पर कई बार आश्चर्य होता है। व्यक्तिगत लाभ के लिए नेताओं को सिद्धांतों की आड़ लेते हुए अचानक दल बदलते हुए देखा जाता है। 1967 से शुरू हुई आयाराम गयाराम की दल बदलने की परंपरा आज एक खेल की तरह हो गई है। आज कोई भी पार्टी क्यों न हो, अपने सिद्धांतों से हटकर, जिनके आधार पर वे जनता के वोट बटोरती हैं, कभी भी कोई भी सुविधाजनक कदम उठा लेती है। कम से कम राजनीतिक पार्टियों के मामले में हम आत्मनिर्भर हैं। एक नंबर पर इस समय भाजपा है तथा दूसरे नंबर पर दूर खड़ी कांग्रेस। अन्य पार्टियां या तो इन दोनों के साथ हैं अथवा खद्योत सम जंह तंह करत प्रकाश हैं। जो रंग बदलने के गुणों से विभूषित नहीं हैं, वे माक्र्सवादियों की तरह हाशिए पर चली जाती हैं।
स्वतंत्रता के बाद भारत की ग्रैंड ओल्ड पार्टी कांग्रेस का नेतृत्व करते हुए जवाहरलाल नेहरू ने एक प्रजातांत्रिक समाजवादी समाज का सपना देखा था। शीघ्र ही यह सपना सरकारी सफेद हाथियों और कोटा-परमिट राज में बदल गया। चार दशक बाद जब अर्थव्यवस्था रसातल पर चली गई तो नरसिम्हा राव के नेतृत्व में मनमोहन सिंह उदारीकरणकरण की नीति लाए, जिससे अपार संपदा आई। लेकिन कांग्रेस समाजवाद और निजीकरण का एक साथ गुणगान करने में लगी रही। इमरजेंसी में 19 महीने तक पूर्ण सेंसरशिप लागू करने वाली पार्टी अब भाजपा द्वारा अपने प्रभाव में लिए गए मीडिया को निष्पक्ष रिपोर्टिंग का मार्ग बताती है। 20 फरवरी 2014 को राज्यसभा में बत्ती बुझाकर ध्वनि मत से तेलंगाना निर्माण का विधेयक पास कराने वाली कांग्रेस को वर्तमान में किसान बिल ध्वनि मत से पास कराए जाने में संवैधानिक और नैतिक मर्यादा टूटती दिख रही हैं। किसान को कहीं भी उत्पाद बेचने की व्यवस्था को घोषणा पत्र में डालकर अब विरोध करना हैरत में डालता है।
भाजपा की आयु और इतिहास कांग्रेस से बहुत कम है, पर एक ओर अचानक ‘सबका साथ, सबका विश्वास’ का नारा तो दूसरी ओर मॉब लिंचिंग और लव जिहाद पर मौन, और यूपीए-दो के समय संसद की कार्यवाही को पूरी तरह ठप करने व सत्र के बाद सत्र बाधित करने वाली पार्टी का आज सदन की गरिमा पर आंच की बात करना हतप्रभ कर देने वाला है। लोकसभा में मनरेगा को आम जनता के धन को लुटाने वाला बताने वाली पार्टी आज मनरेगा का बजट बढ़ा कर अपनी पीठ थपथपा रही है। सीबीआइ के दुरुपयोग के मुद्दे पर जमीन-आसमान एक कर देने वाली पार्टी आज सीबीआइ, एनसीबी और ईडी के माध्यम से अपनी वीरता का प्रदर्शन कर रही है।
नेता और पार्टियां रंग बदलने और एक साथ दो मुंहों से बात करने के लिए विवश हैं। हमेशा अनुकूल बने रहने और अस्तित्व की रक्षा के लिए उन्हें इस प्रकार का व्यवहार करना ही पड़ता है। सहानुभूति होती है उन समर्थकों से जो तत्काल अपनी पार्टी की तरह रंग नहीं बदल सकते, फिर भी हर परिस्थिति में सच्चे अनुयायी बने रहते हैं। रंग बदलती राजनीति वैसे तो रोचक होती है, परंतु यह देश के लिए एक गंभीर खतरा है।
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