यह भी देखें : आत्म-दर्शन : बंधुत्व की भावना लंबे कालखण्ड तक समस्त सुखों को भोगने के पश्चात एक दिन ययाति पुरु के पास आए और कहा, ‘पुत्र! अब तुम अपनी युवावस्था ले लो और मुझे मेरा बुढ़ापा दे दो। तुमने मेरी इच्छा का सम्मान करते हुए अपनी युवावस्था मुझे दे दी, सो मैं बहुत प्रसन्न हूं। अब से यह राज्य भी तुम्हारा है, तुम सुखपूर्वक इसका भोग करो। मैं अब वन में जा कर तपस्या करते हुए अपना अंतिम समय बिताऊंगा।’
यह भी देखें : आत्म-दर्शन : महानता का मार्ग पुरु मुस्कुराए। पूछा, ‘आपकी इच्छा का सम्मान करना मेरा धर्म था, किन्तु क्या आप संतुष्ट हैं पिताश्री?’ ययाति ने उत्तर दिया, ‘नहीं! हजार वर्षों का विलास भी मुझे संतुष्ट नहीं कर पाया। किन्तु तुम्हे तुम्हारी वस्तु तो वापस करनी ही थी, सो चला आया हूं।’
‘पिताश्री! यदि आप संतुष्ट नहीं हैं तो आगे भी मेरी युवावस्था रख सकते हैं। मुझे इसकी आवश्यकता नहीं है क्योंकि मैं अपनी अवस्था से संतुष्ट हूं। मुझे सुख का लोभ नहीं है, न ही मैं आपको अपनी युवावस्था देने के बदले आपसे राज्य लेना ही चाहता हूं।’ पुरु ने प्रसन्नतापूर्वक कहा। ययाति ने आश्चर्य से देखा आपने साधु पुत्र की ओर, उसके मुख पर दिव्य कांति पसरी हुई थी। पुरु उनके भाव समझ गए। कहा, ‘भोग मनुष्य को कभी संतुष्टि नहीं दे पाते पिताश्री! मनुष्य जितना ही अधिक सुखों का भोग करता है, उसकी भोग लालसा उतनी ही तीव्र होती जाती है। मनुष्य को संतुष्टि त्याग से मिलती है।’
ययाति देर तक सोचते रहे। फिर कहा, ‘तुमने ठीक कहा पुत्र! भोगों से मुझे हजार वर्षों में भी संतुष्टि नहीं मिली, पर अब मैं संतुष्टि चाहता हूं। यह मुझे त्याग से ही मिलेगी। मैं अब यह युवावस्था त्यागना चाहता हूं, तुम इसे ले लो।’ पुरु ने हंस कर स्वीकार कर लिया। वे युवा हो गए और ययाति बुजुर्ग! ययाति प्रसन्नतापूर्वक वन की ओर चले गए। किन्तु समय ने देखा, इस बार भी त्याग पुरु ने ही किया था।