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संबल मिले तो चले संसद

Published: Aug 02, 2015 11:58:00 pm

“संसद की
कार्यवाही फिर ठप रही” यह देश के नागरिकों के लिए आम वाक्य हो चला है। जनप्रतिनिधि
प्रजातंत्र के सबसे बड़े मंदिर में आजकल “तेरा भ्रष्टाचार बनाम मेरा भ्रष्टाचार”
खेल रहे हैं

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एन. के. सिंह वरिष्ठ पत्रकार
“संसद की कार्यवाही फिर ठप रही” यह देश के नागरिकों के लिए आम वाक्य हो चला है। जनप्रतिनिधि प्रजातंत्र के सबसे बड़े मंदिर में आजकल “तेरा भ्रष्टाचार बनाम मेरा भ्रष्टाचार” खेल रहे हैं। भाव कुछ इस तरह का है – “तुमने मेरे मंत्री या मुख्यमंत्रियों का भ्रष्टाचार दिखाया, लो, अब ये तुम्हारे मुख्यमंत्रियों का है। हो गया न बराबर।”

सकारात्मक रूप से सोचा जाए तो कुल मिलाकर भ्रष्टाचार सामने आ रहा है सत्ताधारियों का। किसी भी विकासशील समाज के लिए इससे अच्छी बात क्या हो सकती है। लेकिन डर यह है कि जब भ्रष्टाचार हर लम्हे पर और हर मुकाम पर दिखाई देने लगेगा तो सत्ताधारी की शर्म जाती रहेगी और पूरा समाज ही इसके प्रति सहिष्णु हो जाएगा और “कोई नृप होहिं हमें का हानि” वाली उदासीनता व्याप्त हो जायेगी।

क्यों रूके कार्यवाही
किसी भी संसद के चार कार्य होते हैं— कानून बनाना, सरकार को खर्च करने की अनुमति देना, सरकार के कार्यो की समीक्षा करना और राष्ट्रीय मुद्दों पर बहस करना। इन चार कार्यो में से एक भी यह इजाजत नहीं देता कि अगर मुद्दा गंभीर हो तो संसद की कार्यवाही भी रोकी जा सकती है।

शायद नासमझी से हम प्रजातंत्र के मंदिर के रूप में विकसित की जाने वाली इस संस्था को गलत दिशा में ले जा रहे हैं। हम यह भूल जा रहे हैं कि ब्रिटेन की संसद जो पूरे विश्व की संसदों की जननी मानी जाती है, में शायद ही कभी कार्य-बाधित हुआ हो। लगभग सौ साल से अंगरेज मना करते रहे कि ब्रितानी संसदीय प्रणाली भारत के लिए अभी उपयुक्त नहीं है लेकिन तत्कालीन नेताओं की जिद के तहत यह व्यवस्था अपनाई गई। इसका नतीजा यह रहा कि संसदीय फॉर्मेट तो हमने ब्रितानी ले लिया पर उसको चलने के लिए जो नैतिक संबल चाहिए था वह नदारद रहा।


आज से लगभग 90 साल पहले ब्रिटेन की लेबर पार्टी के प्रधानमंत्री राम्से मैकडोनाल्ड की सरकार को इस बात पर इस्तीफा देना पड़ा कि “कैम्पबेल घटना” में राजनीतिक कारणों से एक व्यक्ति के ऊपर से आपराधिक मुकदमे उठाने का फैसला लिया था।” यहां भारत के उत्तर प्रदेश, बिहार या मध्य प्रदेश में आतंकवाद के तमाम अभियुक्त पर से सरकारें शुद्ध राजनीतिक कारणों से अक्सर मुकदमे उठा लेती हैं या किसी क्षेत्र विशेष में अपराधी पकड़ने के लिए छापे मारने की इजाजत पुलिस को नहीं देती और किसी के कान पर जू नहीं रेंगती। व्यापमं घोटाला दशकों से चलता रहा। उत्तर प्रदेश में पी सी एस परीक्षा में 86 में से 56 उत्तीर्ण अभ्यर्थी उस जाति के रहे जिस जाति का मुख्यमंत्री है लेकिन सरकार को कोई छू भी नहीं सका।

प्रचार का मंच बना दिया

भारतीय संसद या राज्य विधायिकाओं में इस तरह के व्यवहार के दो कारण हैं। एक यह कि हमने इस संस्था को भी प्रचार और वितंडावाद का अस्त्र बना लिया है, जो संसद ना चलने से ज्यादा अपेक्षित परिणाम दे रहा है और दूसरा संसद में चर्चा (दल-बदल कानून की बाध्यताओं के कारण) से कोई मत परिवर्तन नहीं होता, क्योंकि सांसदों को वही करना होता है जो पार्टी का नेता कहता है (अन्यथा सदस्यता जाने का खतरा रहता है)। लिहाजा चर्चा में तथ्यों, तर्को या भाषण की कला चाहे जितनी प्रभावशाली क्यों न हो, अंत में “खूंटा वहीं गड़ेगा” का आदिम न्याय संसद में भी रहता है।

सन् 1885 से 1947 तक के देश के रहनुमाओं में “ब्रितानी प्रजातांत्रिक सिस्टम” (वेस्टमिन्स्टर मॉडल) अपनाने को लेकर एक अजीब ललक थी। कांग्रेस की स्थापना अधिवेशन में बोलते हुए दादाभाई नौरोजी ने कहा था “भारत में अंग्रेजी हुकूमत का क्या फायदा अगर इस देश को भी बेहतरीन ब्रितानी संस्थाओं के समान संस्थाएं नहीं दी गई। हमें उम्मीद है कि भारत को भी ऎसी संस्थाओं का तोहफा ब्रिटेन की सरकार देगी।”

ठीक एक साल बाद 1886 में पार्टी के अधिवेशन में बोलते हुए महामना मदनमोहन मालवीय ने कहा था “ब्रिटेन की प्रतिनिधि संस्थाएं वहां की जनता के लिए उतनी हीं अहम् हैं, जितनी उनकी भाषा और उनका साहित्य। क्या ब्रितानी हुकूमत हमें ऎसी प्रतिनिधि संस्थाओं से वंचित रखेगी?”

अंगरेजों ने कहा था, विफल रहेगी
दूसरी ओर अंगरेज लगातार कहते रहे कि भारत में इस तरह की प्रतिनिधि संस्थाएं बुरी तरह विफल रहेंगी। उनका तर्क था कि ब्रिटेन में भी इस तरह की संस्थाएं विकसित करने के पीछे मैग्ना कार्टा से अब तक का 700 साल का इतिहास रहा है। दो-दो क्रांतियों की वजह से सामाजिक चेतना का स्तर अलग रहा है, प्रजातांत्रिक भावनाओं को आत्मसात करने का अनुभव रहा है। उनका मानना था कि किसी ऎसे समाज में जिसमे समझ का स्तर बेहद नीचे हो, जिसमें समाज तमाम अतार्किक और शोषणवादी पहचान समूह में बंटा हो और जो पश्चिमी प्रजातंत्र के औपचारिक भाव को न समझ सकता हो, यूरोपीय प्रतिनिधि संस्थाएं थोपना भारत के लोगों के साथ अन्याय होगा।

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की भारत में भी संसदीय प्रणाली स्थापित करने की इस मांग पर अपनी प्रतिक्रिया में तत्कालीन वाइसराय लार्ड डफरिन ने कहा “यह अज्ञात की खोह में कूदने से अलावा कुछ भी नहीं होगा। ये संस्थाएं बेहद धीमी गति से कई सदियों की तैयारी का नतीजा हैं।” ब्रिटिश संसद में भारत में लागू किए जाने वाले चुनावी प्रस्ताव पर एक बहस के दौरान 1890 में वाइसकाउंट क्रॉस जो भारतीय मामलों के मंत्री थे, ने कहा “अपने होशो-हवास में रहने वाला कोई भी व्यक्ति यह सोच भी नहीं सकता कि इंग्लैंड जैसी संसदीय व्यवस्था भारत में भी होनी चाहिए। भारत तो छोडिए, किसी भी पूर्वी देश में जिनकी आदतें व सोच सर्वथा अलग किस्म की हैं, संसदीय प्रणाली निरर्थक साबित होगी।”

उनके उत्तराधिकारी “अर्ल ऑफ किम्बरले” उनसे भी आगे बढ़ते हुए बोले “एक ऎसे देश में, जो समूचे यूरोप से बड़ा हो और जिसकी विविधताएं अनगिनत हों, वहां संसदीय व्यवस्था देने की सोच मानव मस्तिष्क का अजूबा विचार ही कहा जा सकता है।”

पहले एकल समाज तो हो
ब्रिटेन के तत्कालीन प्रधानमंत्री ए जे बेल्फोर ने हाउस ऑफ लॉड्र्स में बोलते हुआ आगाह किया “हम सब यह मानते हैं कि पश्चिमी प्रतिनिधि सरकार एक ऎसी सरकार, जो पारस्परिक विचार-विमर्श (डिबेट) के आधार पर चलती हो, सर्वश्रेष्ठ है लेकिन यह तब (संभव है) जब आप एक ऎसे समाज में हों, जो एकल (होमोजेनियस) हो, जो हर तथ्यात्मक व भावनात्मक रूप से समान हो, जिसमें बहुसंख्यक अपने अल्पसंख्यकों की भावनाओं का स्वत: और आदतन अंगीकार करे और जिसमें एक-दूसरे की परम्पराओं को समान भाव से देखने की पद्धति हो और जहां विश्व के प्रति तथा राष्ट्रीयता को लेकर सदृश्यता हो।” बेल्फोर भारत में बढ़ती हिन्दू-मुसलमान वैमनस्यता तथा पूरी तरह एक-दूसरे से अलग रहने वाली जाति संस्था के सन्दर्भ में बोल रहे थे।

इन सभी चेतावनियों को दरकिनार कर, यहां तक कि महात्मा गांधी के तमाम विरोध के बावजूद अंग्रेजी शिक्षा से ओतप्रोत कुछ संभ्रांत नेताओं ने भारतीय संविधान को बी एन राव सरीखे एक अफसर (जिन्होंने 1935 के गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट बनाने में भी अपनी भूमिका निभायी थी) की देखरेख में ब्रितानी, अमरीकी और अन्य यूरोपीय संस्थाओं की नकल कर भारत का संविधान तैयार कराया।

प्रजातंत्र की संस्थाओं से भारत में ही नहीं समूचे विश्व में मोहभंग हुआ है। पांच साल पहले 22 जून 2010 को प्रकाशित एक व्यापक “गाल-अप” पोल में पाया गया कि 89 प्रतिशत अमरीकियों को अमरीकी कांग्रेस (संसद) में भरोसा नहीं है। अगर भारत में सांसदों के पैसा लेकर सवाल पूछने का मामला स्वर्ग में आजादी के 65 साल बाद महात्मा गांधी को आंसू बहाने को मजबूर कर रहा होगा तो सवा दो सौ साल बाद बेंजामिन फ्रेंक्लिन (अमरीकी आजादी व संविधान के जन्मदाता) की आत्मा भी अमरीकियों के इस तथ्य को जान कर बहुत खुश नहीं होगी।
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