विज्ञान के सिद्धांत, दर्शन और अध्यात्म
से अलग ही होते हैं। शायद यही वजह है कि जीवन में कई बार ऎसी असमान्य और रोचक
घटनाएं देखने को मिलती हैं जिनका जवाब विज्ञान के पास नहीं होता लेकिन उनका संबंध
दर्शन या अध्यात्म से होता है। मानव स्वास्थ्य को लेकर विज्ञान ने जिस तेजी से
प्रगति की उसने उसे दर्शन और अध्यात्म से दूर भी किया। लेकिन, अब अच्छा संकेत यही
है कि यह दूरी कम होती दिखाई दे रही है। इसी विषय पर पढिए जाने-माने न्यूरोलॉजिस्ट
डॉ. अशोक पानगडिया का विचारोत्तेजक लेख..
डॉ. अशोक पानगडिया
न्यूरोलॉजिस्ट
बतौर न्यूरोलॉजिस्ट अपने 35 वर्ष के कार्यकाल के दौरान मैंने
अनेक अजीब और रोमांचक घटनाएं देखी हैं जिन्हें वास्तविक किस्सा समझा जा सकता है या
फिर अंधविश्वास भी। एक वैज्ञानिक के रूप में, मैं वैज्ञानिकों, दार्शनिकों और
धर्मगुरूओं के अलग अलग सिद्धान्तों और अवधारणाओं के बारे में सुनता-पढ़ता रहा और
मैंने उनका विश्लेषण भी किया। मैं हमेशा सोचता हूँ कि क्या विज्ञान, वेदों और दर्शन
शास्त्र में कोई संख्यात्मक सम्बन्ध है या फिर कोई व्यावहारिक सम्बन्ध है जिसकी
वैज्ञानिक तरीके से व्याख्या की जा सकती है? क्या इस सम्बन्ध से तटस्थ विज्ञान और
आत्मपरक अध्यात्म का मेल हो सकता है?
मानव स्वास्थ्य के प्रति जिज्ञासा
इसी
प्रक्रिया में मैंने महान भौतिक विज्ञानी अल्बर्ट आइंस्टाइन के बारे में पढ़ा। मुझे
स्टीफन हॉकिंग जैसे विख्यात ज्ञानी को भी सुनने का सौभाग्य भी प्राप्त हुआ। विज्ञान
और दर्शन शास्त्र के सम्बन्ध पर मैंने एक अन्य भौतिक विज्ञानी फ्रिटजोफ कापरा की
प्रचलित किताब भी पढ़ी है। दशकों तक विस्तृत परिचर्चा करने के बाद इन सब का यही
निष्कर्ष निकला है कि भौतिक विज्ञान में सभी सवालों का जवाब नहीं है बल्कि असामान्य
घटनाओं को जानने की जिज्ञासा बनी हुई है। हाल ही में मुझे प्रसिद्ध दार्शनिक
पत्रकार और वेदवेत्ता गुलाब कोठारी के लेख पढ़ने का मौका मिला। उनके अनगिनत लेखों
के बीच मुझे असाध्य रोगों पर लिखी उनकी एक पुस्तिका सबसे अच्छी लगी। हालांकि
वैचारिक मतभेद हो सकते हैं लेकिन उनके लेख मानवीय हितों के लिए वैज्ञानिकों को वेद
विज्ञान और दर्शन तथा इन्हें अपनाने के लिए वैज्ञानिक तथ्यों की जांच करने को
प्रोत्साहित करते हैं ।
मानव स्वास्थ हमेशा ही न सिर्फ चिकित्सकों अपितु
दार्शनिकों और धर्म गुरूओं के लिए भी चर्चा का विषय बना रहा है। गैलेलियो के समय से
ही वैज्ञानिक और आध्यात्मिक पहलुओं के बीच काफी मतभेद रहे हैं । विज्ञान की हर नई
खोज के साथ ही मानव स्वास्थ्य और बीमारियों के बीच वैज्ञानिक और आध्यात्मिक पहलुओं
पर चर्चा गरमाई है और दोनों के बीच की खाई बढ़ती गई। उन्नीसवी सदी के अंत तक ये
अपने चरम पर पहुंच गई और इंसान को विज्ञान और ईश्वर के बीच दोनों में से एक चुनने
को बाध्य किया गया। लेकिन, उसके बाद हमने बीमारियों को समझने की सूझबूझ और चिकित्सा
विज्ञान में जबरदस्त विकास देखा। साथ ही स्वास्थ्य की परिभाषा भी बदलती रही। बीसवीं
सदी के दौरान नई वैज्ञानिक खोजों की वजह से विज्ञान और दर्शन के बीच की रेखा
धीरे-धीरे धूमिल हो रही है । पहली बार ये दोनों एक दूसरे के करीब आ रहे
हैं।
तंत्रिका स्नायुजाल और चक्र
अगर हम विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा दी गई
स्वास्थ्य की परिभाषा का विश्लेषण करें तो देखेगें कि उसमें अच्छे स्वास्थ्य का
अर्थ बीमारी या किसी व्याधि का अनुपस्थित होना भर नहीं है बल्कि इसे ऎसी अवस्था
माना गया है जिसमें व्यक्ति शारीरिक, मानसिक और सामाजिक रूप से परिपूर्ण और
तंदुरूस्त रहता है। अगर अंग्रेजी शब्द ष्ठढढ्स्-श्वAस्श्व का विच्छेद करें तो इसमें
भी शरीर और मन में किसी भी तरह के कष्ट के अभाव की बात रहती है। प्राचीन चिकित्सा
पद्धति हिप्पोक्रेटिक मेडिसिन में स्वास्थ्य को संतुलन की अवस्था माना गया है।
इसमें ह्वढढ्ञ्जRह्ररू- मस्तिष्क, मन और शरीर के बीच एकता के सिद्धान्त यानी
भावनात्मक प्रभाव , मन और शरीर के बीच परस्पर निर्भरता और स्वाभाविक रूप से शरीर के
ठीक होने की बात को महत्व दिया गया है।
गुलाब कोठारी अपने लेखन में ऊर्जा, जोश,
ओज की चर्चा करते हैं। उनके अनुसार व्यक्ति शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और आत्मिक
जैसे विभिन्न स्तर पर विचरण करता है जिनका सम्बन्ध उसके रोग से किया जा सकता है। वे
मानव के हेलो यानि आभामण्डल, चक्र और नाड़ी की भी बात करते हैं। वहीं वैज्ञानिक
किरलियन फोटोग्राफी की मदद से आभामंडल को समझने की कोशिश कर रहे हैं और अलग-अलग
बीमारियों में इसके पैटर्न तथा विभिन्न स्पेक्ट्रम पर शोध हो रहे हंै।
हालांकि
चिकित्सा विज्ञान में मानवीय शारीरिक संरचना में विभिन्न चक्रों और उनकी स्थिति के
बारे में कोई उल्लेख नहीं किया गया है। अलबत्ता, कुछ तंत्रिका स्नायुजाल ऎसी स्वत:
क्रियाओं को नियंत्रित करती है जो चक्रों के पास ही मौजूद हैं। एक रोचक तथ्य ये भी
है कि ऑटोनोमिक तंत्रिका तंत्र, तनाव रहित प्रतिक्रिया और तनावपूर्ण प्रतिक्रिया
दोनों को ही संचालित करता है। तनाव रहित प्रतिक्रिया व्यक्ति को स्वस्थ और सुरक्षित
रखती है, वहीं तनावपूर्ण प्रतिक्रिया की वजह से तनाव देने वाली जीवन शैली सम्बन्धित
मनोदैहिक बीमारियां उत्पन्न होती हैं। वैज्ञानिक तौर पर मन और मस्तिष्क का प्रभाव
हाइपोथैलेमस एइडोक्राइन ग्रंथि पर पड़ता है जिसकी वजह से शरीर में रसायनिक और
विद्युत ऊर्जा उत्पन्न होती है जो इन प्रतिक्रियाओं को नियंत्रित करती हैं। यह खोज
करना रोचक होगा कि सेन्ट्रल नर्वस सिस्टम की परिधि के चक्र उसे किस तरह प्रभावित
करते हैं।
विज्ञान दार्शनिक सिद्धांत भी परखे
हमारे जैसे धार्मिक समाज में
जहां अच्छे स्वास्थ्य और आनन्द की अनुभूति के लिए मनोवैज्ञानिक आवश्यकताओं की
संतुष्टि की जाती है। वहाँ आत्मा, अतिरिक्त संवेदी बोध, टेलीपैथी, पुनर्जन्म जैसी
बातों की चर्चा भी उचित है। दार्शनिक रूप से समझा जाए तो विद्युतचुंबकीय तरंगों के
जरिये मन आत्मा से जुड़ा है जो इन्हें लेना-देना, समझ-बूझ सकती है। मेरे विचार से
ये ऎसी अति आधुनिक मानसिक प्रक्रिया है जिसे मौजूदा वैज्ञानिक साधनों से नापा ही
नहीं जा सकता है। विख्यात दार्शनिक विज्ञानी – देस्क्राटिस का मानना है कि व्यक्ति
की शीर्षग्रंथि मन और आत्मा को जोड़ती है ।
हालांकि ये सभी वैज्ञानिक व्याख्याओं से
परे है। वे कहते थे कि शीर्षग्रंथि आत्मा को ब्र±मांड से जोड़ती है। हालांकि अभी इस
बात कि पुष्टि नहीं की जा सकती है लेकिन शीर्ष ग्रंथि से सम्बद्ध आध्यात्मिक
उद्बोधन या ज्ञानोदीप्ति, अवचेतन मन की उच्च अवस्था और अतिरिक्त संवेदी बोध मानव की
तीसरी आंख के दार्शनिक सिद्धान्त का महत्व बढ़ाती है। मस्तिष्क के दोनों भागों के
बीच महत्वपूर्ण स्थान पर स्थित शीर्षग्रंथि बुद्धि और शरीर को जोड़ने वाली एकमात्र
संरचना है। इस तीसरे नेत्र को आध्यात्मिक दुनिया की तरंगों के लिए खोला जा सकता है।
ध्यान और योग से तरंगों को जागृत करके या विभिन्न रहस्यमय तंत्र-मंत्र के जरिये
शीर्षग्रंथी के क्रियाशील होने पर व्यक्ति की सुदूरवर्ती दृष्टि जाग जाती है या फिर
वो दूसरे लोक में विचर सकता है। अब विज्ञान मस्तिष्क की शारीरिक संरचना के बारे में
ऎसी जानकारी दे रहा है जिससे परा-मनोविज्ञान के बारे में समझा जा सकता है।
अब
मुद्दा ये है कि इन तथ्यों को प्रयोगशाला में कब परखा जा सकेगा जिससे कट्टर
वैज्ञानिक भी इसे मान लें। जागृत और सत्चरित्र मन, ब्र±मांड और मानव के साथ उसके
सम्बन्धों के बारे में पता लगाने के लिए विज्ञान को दिशा दे सकता है। समय आ गया है
कि विज्ञान उन दार्शनिकों के सिद्धान्तों की जांच करे जिन्होंने बिना अत्याधुनिक
प्रयोगशाला की मदद के विज्ञान को अध्यात्म से जोड़ने की दूरदृष्टि और बुद्धिमत्ता
दिखाने का साहस किया था।