पाए हुए से संतुष्ट रहकर यदि अधिकाधिक पाने की अनावश्यक पिपासा को छोड़ दिया जाए, तो मनुष्य अवश्य ही अनेक शारीरिक, सामाजिक दु:खों से बच सकता है। स्थितप्रज्ञ का अर्थ है – वह पुरुष जिसे आत्मा का अपरोक्ष अनुभव हुआ हो। स्थितप्रज्ञ सत्पुरुष ममता का सर्वथा त्याग कर देता है। मनुष्य जिन वस्तुओं को अपनी मानता है, वे वास्तव में अपनी नहीं हैं, वरन् संसार से मिली हुई हैं। मिली हुई वस्तु को अपना मानना भूल है। यह भूल मिट जाने पर स्थितप्रज्ञ, वस्तु-व्यक्ति-पदार्थ-शरीर इन्द्रियां आदि में ममता रहित हो जाता है। यह शरीर मैं ही हूं, इस तरह शरीर से तादात्म्य मानना अहंकार है। स्थितप्रज्ञ में यह अहंकार नहीं रहता। जो सत्पुरुष काम, क्रोध लोभ, मोह, अहंकार से रहित है, अर्थात् विद्वत्ता आदि के सम्बन्ध से होने वाले आत्माभिमान से भी रहित है, वह स्थितप्रज्ञ ब्रह्मवेत्ता ज्ञानी संसार के सर्व दु:खों की निवृत्तिरूप मोक्ष नामक परम शान्ति को पाता है, अर्थात् ब्रह्मरूप हो जाता है।
(लेखक जूना अखाड़ा के आचार्य महामंडलेश्वर हैं)