धर्म को भूलते जाना या उसके वास्तविक स्वरूप से अनभिज्ञ रहने का ही परिणाम है कि व्यक्ति हर क्षण दुख और पीड़ा को जीता है, तनाव का बोझ ढोता है, चिंताओं को विराम नहीं दे पाता, लाभ-हानि, सुख-दुख, हर्ष-विषाद को जीते हुए जीवन के अर्थ को अर्थहीन बनाता है। वह असंतुलन और आडंबर में जीते हुए कहीं न कहीं जीवन को भार स्वरूप अनुभूत करता है, जबकि इस भार से मुक्त होने का उपाय उसी के पास और उसी के भीतर है। आवश्यकता है तो अंतस में गोता लगाने की। जब-जब वह इस तरह का प्रयास करता है, तब-तब उसे जीवन की बहुमूल्यता की अनुभूति होती है कि जीवन तो श्रेष्ठ है, आनन्दमय और आदर्श है। लेकिन जब यह महसूस होता है कि श्रेष्ठताओं के विकास में अभी बहुत कुछ शेष है, तो इसका कारण स्वयं को पहचानने में कहीं न कहीं चूक है। यही कारण है कि मनुष्य समस्याओं से घिरा हुआ है।
(लेखक जूना अखाड़ा के आचार्य महामंडलेश्वर हैं)