संसार की इस लम्बी जीवन-यात्रा को एकाकी पूरा करने के लिए चल पडऩा निरापद नहीं है। इसमें आपत्तियां आएंगी, संकटों का सामना करना होगा। निराशा और निरुत्साह से टक्कर लेनी होगी। और, इन बाधाओं और दु:खदायी परिस्थितियों से लडऩे के लिए एक विश्वस्त साथी का होना अति आवश्यक है। और, वह साथी ईश्वर से अच्छा और कोई हो नहीं सकता। उसे कहीं से लाने-बुलाने की आवश्यकता नहीं होती है। वह तो हर समय, हर स्थान पर विद्यमान है। वह हमारे भीतर ही बैठा हुआ है। किन्तु, हम अपने अहंकार के कारण उसे जान नहीं पाते। ईश्वर हमारा महान उपकारी पिता है। वह हमारा स्वामी और सखा भी है। हमें उसके प्रति सदा आस्थावान रहना चाहिए और आभारपूर्वक उसके उपकारों को याद करते हुए उसके प्रति विनम्र एवं श्रद्धालु बने रहना चाहिए। इसमें हमारा न केवल सुख निहित है, बल्कि लोक-परलोक दोनों का भी कल्याण है। वह करुणा सागर है, दया का आगार है। जिसने ईश्वर से मित्रता कर ली है, उसे अपना साथी बना लिया है, उसके लिए यह संसार बैकुण्ठ की तरह आनन्द का सागर बन जाता है।