आपको डर और असुरक्षा को छोडऩा नहीं है, क्योंकि असल में उनका कोई वजूद नहीं है। आप उन्हें खुद अचेतन में पैदा करते हैं। सवाल यह है कि आप उनकी रचना क्यों करते हैं और उनका सृजन बंद कैसे करें? आपके भीतर डर की बुनियादी वजह यह है कि इस विराट अस्तित्व में, जिसकी न तो आप शुरुआत जानते हैं और न ही अंत, आप बस एक सूक्ष्म प्राणी हैं। एक सूक्ष्म प्राणी में डर का होना स्वाभाविक है। भविष्य में आपके साथ क्या घटित होगा, डर और असुरक्षा इसको लेकर है। डर अतिसक्रिय और बेलगाम मन की रचना मात्र है।
अगर आप अपनी प्रार्थनाओं पर गौर करें, तो पाएंगे कि संसार की 95 प्रतिशत प्रार्थनाओं का संबंध, सुरक्षा और खुशहाली मांगने से ही है। यह बस अपना वजूद बरकरार रखने के लिए है। अधिकतर लोगों में प्रार्थना की बुनियाद डर और असुरक्षा ही है। जब तक आप अपनी पहचान एक भौतिक शरीर से बनाए हुए हैं और आपके जीवन का अनुभव अपनी शारीरिक तथा मानसिक क्षमताओं तक सीमित है, डर और असुरक्षा लाजिमी है। एक बार जब आप खुद को शारीरिक और मानसिक सीमाओं से परे अनुभव करना सीख लेते हैं, केवल तभी डर और असुरक्षा जैसी कोई चीज नहीं रह जाती है। योग इसमें सहायक होता है।