यह ख़बर पढ़ते ही मुझे यकायक याद आया वर्ष 1982 जब हम ताजे ताजे पत्रकारिता में आये थे और काम करते वक़्त एक कॉलम लिखा वो महिला सदन के दरवाज़े तक कैसे पहुँची । जिसमें मैंने महिला सदन की लड़कियों के महिला सदन तक पहुचनें की व्यथा का वर्णन उनके साक्षात्कारों के माध्यम से किया था। तब महिला सदनों से इस तरह की ख़बरें दबी आवाज़ में सुनायी देती थीं । किन्तु यहाँ तक पहुँची लड़कियाँ और महिलायें इस तरह के हादसों से गुज़र कर ही बालिका गृहों में या सदन के दरवाज़ों तक पहुँचती थी ।एक तरफ़ घरों से बेघर लड़कियों के लिये बनाये गये यह सुरक्षालय ही उनके लिये असुरक्षित हो जाते हैं । इन सदनों की संचालिकाओं की भी समय समय पर शिकायतें आती रहती हैं पर दबी ज़ुबान में ही दब कर रह जाती हैं । इन सदनों के अन्दर का माहौल भी अच्छा कहाँ होता है ? यहाँ भी औरतें यौन शोषण से पीड़ित की जाती हैं हाँ सामाने यदाकदा आती हैं । उसके अलावा महिलायें अमानवीय व्यवहार से भी पीड़ित रहती हैं । सतायी हुई और ना सतायी जाये इसके लिये जरुरी है मानवीय दृष्टि कोण । गत वर्षों में महिलाओं की यौन समस्याओं के प्रकार जिस क़दर बढ़ गये हैं वो दिल दहलाने वाले हैं ।
इनमें तेज़ाब डालने वाली घटनाएँ हो या घरेलू हिंसा की हो या बलात्कार की इन सब के लिये जितने क़ानून बनते जा रहे हैं उतनी ही घटनायें भी बढ़ती जा रही हैं । हम सदियों से वेश्या वृत्ति, गोली प्रथा आदि विभिन्न समस्याओं के हल ढूँढते- ढूँढते ऐसी ही नयी समस्याओं में फँसते चले जा रहे हैं । अब काल गर्ल्स ,बार गर्ल्स , कास्टिग काउच जैसी घटनाओं से ग्रस्त लड़कियाँ होने लगी हैं ।कहने का तात्पर्य है कि समस्या का नाम बदल गया पर समस्याएं तस की तस हैं । विभिन्न नामों और तरीक़ों से देह व्यापार के धन्धे चल रहे हैं। जो विकास की धारा के साथ साथअलग अलग नामों से फूल फलरहे हैं।
क्योंकि आज भी लड़कियों के जन्म से लेकर पालन पोषण शिक्षा दीक्षा सब दोयम दर्जे का होता हैं । आज भी औरत को उसके बौद्धिक स्तर से नहीं शारिरिक डील डोल के तराज़ू में तौला जाता है । परन्तु हमें औरतों की शिक्षा के साथ साथ आर्थिक दृष्टि से सक्ष्म बनाना तो जरुरी है । किन्तु समाज में इन प्रैक्टिस स को रोकने के लिये हर पुरुष को पुरुषत्व की परिभाषा को बदलना होगा । समाज के अब एक शरत चन्द की नहीं हर घर में ,हर क़दम पर शरत चन्द की जरुरत है । तभी ऐसी समस्यायएँ कम हो सकेंगीं ।
रेणु जुनेजा