ब्रह्माण्ड का प्रत्येक पिण्ड अपने आप में पृथ्वी है चाहे वह सूर्य, चन्द्रमा अथवा कोई भी ग्रह हो। सबके अपने-अपने जीव/प्राणी होते हैं। वे सभी अपनी-अपनी पृथ्वी के पशु हैं। अक्षर पुरुष जब प्रकृति से संयुक्त होता है, तब प्रकृति (परा) रूप ब्रह्म के पांच रूप होने के कारण स्वयं भी पांच रूप धारण करता है- स्वयंभू, परमेष्ठी, सूर्य, चन्द्रमा और पृथ्वी।
ब्रह्माण्ड का प्रत्येक पिण्ड अपने आप में पृथ्वी है चाहे वह सूर्य, चन्द्रमा अथवा कोई भी ग्रह हो। सबके अपने-अपने जीव/प्राणी होते हैं। वे सभी अपनी-अपनी पृथ्वी के पशु हैं। अक्षर पुरुष जब प्रकृति से संयुक्त होता है, तब प्रकृति (परा) रूप ब्रह्म के पांच रूप होने के कारण स्वयं भी पांच रूप धारण करता है- स्वयंभू, परमेष्ठी, सूर्य, चन्द्रमा और पृथ्वी। प्राणमय अक्षर पुरुष स्वयंभू कहा जाता है। आपोमय अक्षर पुरुष परमेष्ठी है। वाङ्मय अक्षर पुरुष सूर्य, अन्नमय अक्षर पुरुष चन्द्रमा तथा अन्नादमय अक्षर ही पृथ्वीलोक है। सातों लोकों में अक्षर व्याप्त है। स्वयंभू ब्रह्माग्नि का लोक है। यजु: ही ब्रह्माग्नि है। यत् और जू रूप यही आकाश और वायु है। परमेष्ठी के पितृ प्राण यानि सृष्टि के रचयिता वाक् रूप में अक्षर पुरुष के मन की इच्छा के अनुरूप विभिन्न सृष्टि उत्पन्न करते हैं। प्राण ही जीवन है, वीर्य है। वाक् योनि है। प्राण ही आगे विकार रूप में परिणत होता है। प्राण से वाक् में विकृति आती है। रेत ही विकृत होकर अनेक वस्तु उत्पन्न कर देता है। सेचन, विकृति और फिर जन्म।