scriptशरीर ही ब्रह्माण्ड : विसर्गात्मक शक्ति है प्राणन् | Sharir hi brahmand : Pran is the main force operating the universe | Patrika News

शरीर ही ब्रह्माण्ड : विसर्गात्मक शक्ति है प्राणन्

Published: Sep 18, 2021 07:48:22 am

Submitted by:

Gulab Kothari

विसर्गात्मक शक्ति के लिए वेद का शब्द है-प्राणन्। आहरण शक्ति के लिए शब्द है-अपानन। केन्द्र से परिधि की ओर जाना प्राणन् है, विसर्ग है। परिधि से केन्द्र की ओर आना अपानन है, आदान है। पीछे हटना अपानन है, आगे बढऩा प्राणन् है। मध्य में व्यानन है।

sharir_hi_brahmand_gulab_kothari_ji.jpg
– गुलाब कोठारी

प्राण है तो जीवन है। प्राण है तो इन्द्रियां कार्य करती हैं। प्राण और देव पर्यायवाची शब्द हैं। अक्षर सृष्टि रूप है। ‘यथापिण्डे तथा ब्रह्माण्डे’ के आधार पर कहा जा सकता है कि सातों लोक की प्रजाएं और क्रियाएं प्राणों पर आधारित हैं। प्राण ही भूत और भौतिक पदार्थों का जनक है। यह प्राण ही वेद विज्ञान का आधार स्तम्भ है। जिसके द्वारा सब प्राणवान् हैं वही प्राण है। प्राण प्रतिक्षण क्रियाशील है। प्राण के सम्बन्ध से वस्तु में जो कंपन होता है, वह क्रिया कहलाती है।
जिसमें क्रिया होती है उसमें से प्राण का कुछ भाग निकल जाता है। जिस प्रकार सरोवर में से एक बिन्दु पानी निकाल देने से उसका कुछ भी भाग कम होता हुआ नहीं दिखता। उसी प्रकार एक अंगुली हिलाने या चलने-फिरने से शरीर में प्राण की कमी मालूम नहीं होती। परन्तु कमी अवश्य होती है। किसी भी क्रिया को यदि देर तक करते रहें तो अवश्य ही हम थक जाते हैं। यह थकना केवल प्राण की कमी है। जब इस अनन्त आकाश से प्राण की कमी पूरी हो जाती है तो थकान मिट जाती है। अत: सभी क्रियाएं प्राण का ही विकार हैं।
श्वास-गति को भी प्राण कहते हैं। श्वास-प्रश्वास ही जीवन का आधार है। उसी से सारी जीवन-कलाएं कार्य करती हैं। श्वास-प्रश्वास को प्राण कहने का अभिप्राय यह है कि हृदय और फेफड़ों को सतत कार्यशील रखने वाली शक्ति मुख्य प्राण है। प्राण से ही अंग-प्रत्यंग और नस-नाडिय़ां निरन्तर अपना-अपना काम करती हैं। इन्द्रियां, मन तथा बुद्धि भी प्राण के आधार पर स्थित है। यद्यपि इन्द्रियां, मन और बुद्धि सुषुप्ति में निष्क्रिय हो जाते हैं, पर प्राण तब भी अपना कार्य करते रहते हैं। जागृत, स्वप्न और सुषुप्ति तीनों ही अवस्थाओं में प्राण-शक्ति का प्रवाह शरीर की सारी नाडिय़ों में होता रहता है। इस रूप में प्राण-प्रवाह सदा बहिर्मुख रहता है।
एक बार विभिन्न इन्द्रियों में स्थित प्राण अपनी श्रेष्ठता के लिए परस्पर विवाद करने लगे कि मैं श्रेष्ठ हूं- मैं श्रेष्ठ हूं। तब उन प्राणों ने अपने पिता प्रजापति के पास जाकर पूछा ‘भगवन्’! हममें से श्रेष्ठ कौन है? प्रजापति ने उत्तर दिया कि ‘तुममें से जिस तत्त्व के निकल जाने पर शरीर प्राणहीन दिखाई देने लगे, वही तत्त्व श्रेष्ठ है।’ तब वाक् इन्द्रिय शरीर से बाहर चली गई। उसने एक वर्ष तक प्रवास में रहने के बाद लौटकर पूछा-‘मेरे बिना तुम जीवित रहने में कैसे समर्थ रह सके?’ तब इन्द्रियों ने कहा-जिस प्रकार गूंगा, वाणी से बिना बोले हुए भी प्राण से श्वासोच्छ्वास करता है, नेत्रों से देखता है, कानों से सुनता है और मन से चिन्तन करते हुए जीवनयापन करता है। उसी प्रकार हम भी जीवित रहे। ऐसा सुनकर वागिन्द्रिय ने शरीर में पुन: प्रवेश किया। इसके बाद चक्षु, श्रोत्र आदि इन्द्रियां भी शरीर से बाहर निकल गई किंतु फिर भी शरीर का कार्य चलता रहा।
अन्त में प्राण बहिर्गमन करने के लिए तत्पर होता है। जिस तरह शक्तिशाली अश्व स्वयं को बंधन से मुक्त कर लेता है, उसी प्रकार प्राण ने समस्त इन्द्रियों के बन्धन से अपने आप को मुक्त किया। तब उन सबने प्राण से निवेदन किया कि ‘भगवन्! आप अपने ही स्थान पर रहें, आप ही हम सब में श्रेष्ठ हैं, आप बाहर न जाएं।’ इसीलिए लोक में वाक् आदि समस्त इन्द्रियों को ‘प्राण’ नाम से ही सम्बोधित करते हैं, क्योंकि ये सभी प्राण के कारण ही प्राणवान् है। जो देवगण, मनुष्य और पशु आदि प्राणी हैं, वे प्राण के आश्रय से ही चेष्टा करते हैं, क्योंकि प्राण ही समस्त प्राणियों की आयु है। यह सभी प्राणियों का जीवन है।
संहिताओं, ब्राह्मणों और उपनिषदों में सर्वत्र प्राणों की उपासना करने का विधान किया गया है। वेदोक्त प्राण, श्वास और प्रश्वास से भिन्न कोई अन्य पदार्थ है। वह आत्मा से उत्पन्न होकर आत्मा या ब्रह्म के ही व्यक्त स्वरूप शक्ति का रूप धारण किये हुए हैं। अत: वह ब्रह्म ही प्राण है। शरीर में प्राण के पांच क्रियात्मक रूप-प्राण, अपान, समान, व्यान और उदान- प्रतीत होते हैं। और बाहर सूर्य-शक्ति प्राण, पृथ्वी की आकर्षण शक्ति अपान, आकाश समान, वायु व्यान, और अग्नि उदान है।
प्राण और अपान दोनों ही शरीर के पोषक-रक्षक प्राण हैं। प्राण शक्ति-प्रदाता तथा निर्माणकर्ता है। यह जठराग्नि से जुड़कर शरीर की सप्त धातुओं के रस निर्माण में भूमिका निभाता है। शरीर की दैनिक क्रिया ‘रस और मल’ के सिद्धान्त पर ही टिकी है। उदाहरण के लिए रक्त से जब मांस का निर्माण होता है, तब मांस रक्त का रस कहलाता है और शेष बचा रक्त मांस का मल होता है। अपान शरीर से मलों का विसर्जन करके शरीर को शुद्ध-निरोग रखने में सहायक है। शरीर में प्राण-अपान स्थूल प्राण हैं। गीता में प्राण और अपान को भी यज्ञ कहा गया है। साधारणत: आज सभी मनुष्य प्राणायाम करते हैं। प्राणों की स्वाभाविक गति को रोककर विशेष रीति से नियोजित करने का नाम ही प्राणायाम है। इसमें शरीरस्थ प्राण और अपान वायु की विशिष्ट भूमिका रहती है। बाहर के वायु का भीतर प्रवेश करना अपान कहलाता है। भीतर की वायु को बाहर निकालना प्राण कहलाता है। इस प्राणायाम प्रक्रिया में प्राण का अपान में हवन, अपान में प्राण का हवन तथा दोनों की गति का निरोध में हवन किया जाता है। इनके नियमित अभ्यास से व्यक्ति को स्वास्थ्य लाभ होता है। प्राणन् रूप श्वास एवं अपान रूप प्रश्वास से ही मरणधर्मा प्राणी जीवित रहते हैं।
अपाने जुह्वति प्राण प्राणेऽपानं तथाऽपरे।
प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणा:।। गीता 4.29

सृष्टि स्वयं तो पूर्ण रूपेण प्राणमय ही है। प्राण से ही मन आगे बढ़ता है। ब्रह्म की इच्छा से प्राण ही मन से पृथ्वी तक का निर्माण करता है। सम्पूर्ण प्रकाश मण्डल सौर रश्मियों का समूह मात्र है। सहस्र भाव से सम्पन्न रश्मियां सूर्य केन्द्र से जुड़ी हैं, नियंत्रित हैं। नियन्ता ही व्यान है, यम् है। इसी से नियंत्रित सारी रश्मियां प्राणत्-अपानत् रूप से गतिशील बनी हुई हैं। प्रत्येक रश्मि पीछे हटती हुई आगे बढ़ती है। इसको सर्पण क्रिया कहते हैं। यही प्राण-अपान व्यापार है।
विसर्गात्मक शक्ति के लिए वेद का शब्द है-प्राणन्। आहरण शक्ति के लिए शब्द है-अपानन। केन्द्र से परिधि की ओर जाना प्राणन् है, विसर्ग है। परिधि से केन्द्र की ओर आना अपानन है, आदान है। पीछे हटना अपानन है, आगे बढऩा प्राणन् है। मध्य में व्यानन है। व्यान पर ही दोनों टिके हैं। व्यान ही प्राण को ऊपर ले जाता है, अपान को नीचे फैंकता है। पार्थिव अग्नि (अपान), सौर इन्द्र (प्राण) व्यान पर अवलम्बित हैं। कठोपनिषद् (2.2.5) में भी कहा गया है कि प्राणी व्यान से ही जीवित रहते हैं। इसके आधार पर प्राण और अपान स्वस्वरूप में प्रतिष्ठित रहते हैं।
न प्राणेन, नापानेन मत्र्यो जीवति कश्चन।
इतरेण तु जीवन्ति यस्मिन्नेतावुपा श्रितौ।

यही प्राण मानव की आध्यात्मिक उन्नति में सहायक होता है। ‘अहं ब्रह्मास्मि, ब्रह्मैवेदं सर्वम्’ इत्यादि श्रुति वचनों को मानव इसी प्राण की सहायता से आत्मसात् करने में समर्थ हो पाता है।
loksabha entry point

ट्रेंडिंग वीडियो