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शरीर ही ब्रह्माण्ड : श्राद्ध से चन्द्रयात्रा सुगम

Published: Oct 02, 2021 07:32:05 am

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Gulab Kothari

पृथ्वी के आकर्षण की प्रबलता के कारण चन्द्रयात्रा कष्टकारक होती है। इसे पिण्ड दान से चान्द्रबल प्रदान किया जाता है। पुत्र चावल पिण्ड से इस महानात्मा को चान्द्ररस से युक्त कर देते हैं। जिससे आत्मा बिना कष्ट के चन्द्रमा पर पहुंच जाता है।

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– गुलाब कोठारी

पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु एवं आकाश से बना यह पंचभौतिक शरीर अपनी आयु को भोगकर पुन: पंचतत्वों में विलीन हो जाता है। इस शरीर को संचालित करने वाला आत्मा, स्थूल शरीर के नष्ट होने के बाद चन्द्रलोक में जाकर महानात्मा कहलाता है। महानात्मा में रहने वाले प्राण, पितर कहे जाते हैं।
साहित्य में पितर शब्द के अनेक अर्थ दिए हैं जिनमें मुख्य हैं-अग्नि, सोम, ऋतु, औषधि, यम, देव, प्राण, प्रजापति तथा अन्न। पितर शब्द बहुत व्यापक है। हम सामान्यत: जिन्हें पितर समझते हैं, वे हमारे पूर्वज हैं। पितर प्राण ही का नाम है। चूंकि मृत आत्मा उसी प्राण में शामिल हो जाता है अतएव उनको भी ‘पितर’ कहते हैं।
हमारे शरीर में जैसे 33 देवता हैं, 99 असुर हैं, वैसे ही पितर भी हैं। अस्थि, मांस इत्यादि पदार्थ जिस प्राण से बनते हैं, उसी प्राण को अध्यात्म में पितर कहते हैं। हम मनुष्य हैं। हमसे प्राय: मिथ्याहार-विहारप्रयुक्त दोष हो जाते हैं। प्रज्ञा अपराध (जानते हुए किया गया अपराध) से हमारे अध्यात्म के प्राणों की स्थिति बिगड़ जाती है। हम सभी जानते हैं कि वात, पित्त, कफ की विकृति से मनुष्य के स्वास्थ्य में बाधा पहुंचती है। लेकिन प्राणों की विषमता से हमारे स्वास्थ्य में इन वात पित्तादि की अपेक्षा अधिक बाधा पहुंचती है। प्राणों का संतुलन आवश्यक है। इस उद्देश्य के लिए भी पितृयज्ञ किया जाना अनिवार्य होता है। इसको करने से प्रज्ञापराध से प्राणों में होने वाली विषमता दूर हो जाती है। ऋतु हमारे अनुकूल हो जाती है। अध्यात्म पितर सम अवस्था में परिणत हो जाते हैं। बस पितृयज्ञ का यही मुख्य प्रयोजन है।
ऋग्वेद में कहा है कि पितर सौम्य है-पितर: सौम्यास:। पितरों का सम्बन्ध सोम से है, देवताओं का सम्बन्ध अग्नि से है। पंचपर्वा विश्व में दो सोमलोक और तीन अग्निलोक है। इनमें स्वयंभू सूर्य तथा पृथ्वी अग्निलोक हैं। परमेष्ठी और चन्द्रमा सोम लोक है। प्रत्येक लोक में प्राणों की संज्ञा (नाम) भिन्न-भिन्न है। स्वयंभू में ऋषि प्राण रहता है। इस ऋषि प्राण से परमेष्ठी के आप: तत्त्व का विकास होता है। इस आप: के दो भाग हैं-भृगु और अंगिरा। भृगु स्नेह का वाचक है, अंगिरा तेज का। भृगु की भी तीन अवस्थाएं हैं-अप्, वायु और सोम। इनमें से अप् तत्त्व के आधार पर असुर सृष्टि बनती है, सोम के आधार पर पितर सृष्टि का विकास होता है और वायु के आधार पर गन्धर्व सृष्टि का विकास होता है। अग्नि और सोम को सत्य और ऋत भी कहा जाता है। अग्नि सत्य है, सोम ऋत है। इस प्रकार पितरों का सम्बन्ध ऋत से जुड़ जाता है। आकृति सत्य होती है-सोम वायु-जल-आकाश की तरह आकृति शून्य है।
पितरों का विकास परमेष्ठी मण्डल से होता है। ज्योति अर्थात् देवों का विकास सूर्य में होता है। इसलिये पितरों को देवों का जनक बताया गया है। हमारे शरीर के निर्माण में ऋषि, पितर और देवता तीनों प्राणों का योगदान है। स्वयंभू से ऋषि तत्त्व, परमेष्ठी से पितृतत्त्व और सूर्य से देवतत्त्व लेकर ही हम उत्पन्न होते हैं। इसलिए इन तीनों के प्रति हमारा ऋण है। ऋषिऋण ज्ञान द्वारा, देवऋण यज्ञ द्वारा और पितृऋण सन्तानोत्पत्ति द्वारा चुकाया जाता है।
पितरों और देवों के अनुग्रह से जीवनयात्रा यथावत् चलती है। अतएव उनके प्राकृतिक कार्यों के अनुरूप मनुष्य भी देव तथा पितरों की तृप्ति हेतु विभिन्न ऋतुओं में श्राद्ध-यज्ञादि करते हैं। यह देवों तथा मनुष्यों का परस्पर सहयोग है। कृष्ण कह रहे हैं कि तुम लोग इस यज्ञ द्वारा देवताओं की उन्नति करो और वे देवतागण तुम्हारी उन्नति करें। इस प्रकार परस्पर उन्नति करते हुए तुम परमश्रेय को प्राप्त होंगे।

देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु व:।
परस्परं भावयन्त: श्रेय: परमवाप्स्यथ।। गीता 3.11

लोकान्तर में जाते हुए मृतात्मा (महानात्मा) की तृप्ति के लिए पुत्रादि के द्वारा पिण्डदान रूप से होने वाला वैज्ञानिक कर्म ही श्राद्ध है। श्राद्धकर्म का सम्बन्ध एकमात्र चान्द्र महानात्मा के साथ ही है। महानात्मा का आरम्भक (उपादान) चन्द्रमा है। चन्द्रमा ही सम्भूति तथा विनाश का कारण है। सोम ही शिव तत्व है-इसकी आहुति से संभूति है। यम वायु से यज्ञ रुक जाता है, सोम धारा टूट जाती है। रस-बल का विच्छेद हो जाता है। इसी को विनाश कहा है। संचर/प्रतिसंचर का एक ही क्रम है। अत: आत्मा शरीर छोड़ते ही पहले चन्द्रलोक में जाता है। चाहे वह पुण्यात्मा हो या पापात्मा। पुण्यात्मा आगे उत्तर मार्ग से तथा पापात्मा (इष्ट-आपूर्ति-दत्त वाले) दक्षिण मार्ग से जाते हैं। शरीर की छाया, रात्रि, कृष्ण पक्ष दक्षिणायन सब चन्द्रभाग है। शरीर ज्योति, अह:, शुक्ल पक्ष, उत्तरायण, संवत्सर सौर भाग है।
गीता में भी उत्तरायण और दक्षिणायण का उल्लेख करते हुए कृष्ण कह रहे हैं कि जो ब्रह्मविद् साधकजन मरणोपरान्त अग्नि, ज्योति, दिन, शुक्लपक्ष और उत्तरायण के छ: मास वाले मार्ग से जाते हैं वे ब्रह्म को प्राप्त होते हैं। धूम, रात्रि, कृष्णपक्ष और दक्षिणायन के छ: मास वाले मार्ग से चन्द्रमा की ज्योति को प्राप्त कर योगी (संसार को) लौटता है।

अग्निज्र्योतिरह: शुक्ल: षण्मासा उत्तरायणम्।
तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जना:।। गीता 8.24
धूमो रात्रिस्तथा कृष्ण: षण्मासा दक्षिणायनम्।
तत्र चान्द्रमसं ज्योतिर्योगी प्राप्य निवर्तते।। गीता 8.25

चन्द्रमा तक यात्रा 13 माह की है। पृथ्वी से सम्बन्ध रहने के कारण आत्मा (चान्द्र) पृथ्वी से बद्ध रहता है। दोनों पिण्ड उसे आकर्षित करते रहते हैं। पृथ्वी के आकर्षण की प्रबलता के कारण चन्द्रयात्रा कष्टकारक होती है। इसे पिण्ड दान से चान्द्रबल प्रदान किया जाता है। पुत्र चावल पिण्ड से इस महानात्मा को चान्द्ररस से युक्त कर देते हैं। जिससे आत्मा बिना कष्ट के चन्द्रमा पर पहुंच जाता है।
सृष्टि में अग्नि और सोम ही दो मूल तत्त्व है। इनमें सोम चन्द्रमा तथा परमेष्ठी का तत्त्व है। अध्यात्म में दो प्रकार से चान्द्र सोम का भोग होता है।

पहला-चान्द्र सोम ही रेत बनता है। प्रजा उत्पन्न होती है। दूसरा-हमारे अन्न में पृथ्वी-अन्तरिक्ष-द्यौ-तीनों लोकों का रस प्रतिष्ठित रहता है। घन-तरल-विरल भाग जैसे-दाना-आटा-लोच-स्नेह, मिठास। चौथा चान्द्र सोम (दिक्लोक) दिव्य रस में ही इसका अन्तर्भाव है। मधु और रेत का घनिष्ठ संबंध है। अन्न का स्वाद विशेष ही सोमरस है। अमृत है।
अन्न में अग्नि से दधि भाग, वायु से घृत, आदित्य से मधु, चन्द्रमा से अमृत आता है। अन्न से शुक्र तक की सप्त धातुएं बनती हैं। वायु से ओज, सोम से मन बनता है। पार्थिव धातुओं का शुक्र वाक् तत्व है। ओज प्राण तत्व है। चान्द्र रस मन है। तीनों मिलकर ‘सृष्टि’ है। शुक्र भी चान्द्र है, मन भी चान्द्र है। शुक्र में सजातीय आकर्षण सिद्धान्त के द्वारा चान्द्ररस आता है। अन्न द्वारा भी चान्द्ररस आता है। जो चान्द्ररस स्वतंत्र रूप से आता है वह सहांसि है। नक्षत्र सम्बन्ध से शुक्र में प्रतिष्ठित चान्द्र रस 28 सह भागों में विभक्त हो जाते हैं। यही अध्यात्म में सन्तान प्रवर्तक पितर हैं।
इस श्राद्धकर्म में काल, द्रव्य, मार्ग, प्राप्तिस्थान, प्राप्तिपात्र आदि सभी सौम्य हैं। यही सजातीय सोमानुबन्ध इस श्राद्धकर्म की मूलप्रतिष्ठा है।

श्राद्धकर्म पार्वण और एकोद्दिष्ट दो प्रकार का होता है। हर माह की अमावास्या में पिता-पितामह-प्रपितामह की तृप्ति के लिए होने वाला श्राद्ध ‘पार्वणश्राद्ध’ है। प्रेतपितर की मृत्यु वाली वार्षिक तिथि को होने वाला श्राद्ध ‘एकोद्दिष्ट श्राद्ध’ है। पार्वण श्राद्ध मृत्यु के पश्चात् एक वर्ष तक हर माह किया जाता है। इसके बाद वर्ष में एक बार ही श्राद्ध पक्ष में यह तर्पण कर्म अपेक्षित रहता है। माना जाता है कि वर्ष में 15 दिन के लिए चन्द्रलोक में स्थित पितर प्राण के द्वारा स्वस्वरूप से क्षीण रहते हैं। इस पक्ष में इनके लिए श्राद्धकर्म अपेक्षित है। उस दिन से पितरप्राण (सौम्यप्राण) भूमण्डल की ओर आने लगता है। कार्तिक कृष्ण अमावास्या को ये पितर लौट जाते हैं। श्राद्ध कर्मों को करना आवश्यक माना है ताकि चन्द्रलोक में जाते हुए प्रेतात्मा के महत् पिण्ड में बल का आधान करते हुए उसे सुखपूर्वक जाने के योग्य बना सकें एवं चन्द्रलोक में पहुंचे हुए महानात्मा को तृप्त करते रहें।
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