दोस्त जरूरी
जरूरत यह देखने और विचारने की भी है कि आखिर ऐसा क्यों हो रहा है कि एक-एक करके एनडीए के सहयोगी उससे दूर होते जा रहे हैं?

शिवसेना ने फैसला किया है कि वह २०१९ का लोकसभा और महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव भारतीय जनता पार्टी से अलग होकर लड़ेगी। साथ ही उसने महाराष्ट्र में चल रही दोनों दलों की साझा सरकार से भी अलग होने का फैसला किया है। यह भविष्य के गर्भ में है कि दोनों दल अलग होंगे या नहीं। वर्ष २०१४ में हुआ विधानसभा चुनाव दोनों पार्टियों ने तब २५ वर्ष के हो चुके गठबंधन को तोडक़र अलग-अलग लड़ा था लेकिन दो महिनों में ही फिर एक हो गए और मिलकर सरकार बना ली जो आज तक चल रही है।
शिवसेना अध्यक्ष उद्धव ठाकरे के पुत्र आदित्य ठाकरे ने हाल ही घोषणा की थी अगले एक साल में वे गठबंधन से अलग हो जाएंगे। प्रश्न यही बड़ा है कि यदि दोनों दलों की पट नहीं रही है तब गठबंधन को एक साल खींचने का क्या अर्थ है? मतलब साफ है कि सरकार बनी रहनी चाहिए। पिछले चुनाव में अलग-अलग लडक़र भी भाजपा-शिवसेना दोनों को पूर्वापेक्षा अधिक सफलता मिली थी। यह बात अलग है कि २८८ के सदन में जादुई आंकड़े से तब भाजपा (१४४) काफी पीछे थी। सम्बन्धों की हालत आज भी अच्छी नहीं है। दोनों दल आए दिन एक-दूसरे को सार्वजनिक रूप से जलील करते रहते हैं। फिर चाहे वह केन्द्रीय मंत्रीमण्डल के गठन का प्रश्न हो या फिर उसमें विभागों के वितरण का। बीएमसी के मेयर के चुनाव पर भी दोनों में खूब ठनी थी।
आंकड़े और इतिहास गवाह है कि हर बार झुकी भाजपा ही है। इसमें कोई बुराई नहीं है लेकिन जरूरत यह देखने और विचारने की भी है कि आखिर ऐसा क्यों हो रहा है कि एक-एक करके एनडीए के सहयोगी उससे दूर होते जा रहे हैं? एक समय था जब बीजद, टीएमसी, अगप, द्रमुक, इनेलो, शिअद, जद (यू) सब तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के साथ थे। शिवसेना तब का साथी था जब कोई भाजपा के साथ नहीं था। धीरे-धीरे कई अलग हो गए और कई तैयारी में हैं। सत्ता आती-जाती रहती है। जरूरत है विश्वास और विश्वसनीयता की। यदि सत्ता आने के बाद मौसम की तरह दोस्त बदल लिए या पीछे छोड़ दिए तो नए दोस्त बनाने में बहुत समय लगेगा। बिना दोस्तों के कुछ समय तो गुजारा जा सकता है लेकिन लम्बी यात्रा करना असंभव नहीं तो मुश्किल जरूर हो जाता है। खासतौर पर राजनीति में।
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