दरअसल श्रीकृष्ण इस प्रसंग के माध्यम से ‘जल प्रदूषित होने से बचाओ, नदी को स्वच्छ-स्वस्थ बनाओ’ का संदेश पांच हजार साल पहले ही दे चुके हैं। मेरे मत में श्रीकृष्ण नदी बचाओ अभियान के जनक और प्रदूषण मुक्ति के प्रथम ‘ब्रांड ऐम्बैसडर’ हैं। विद्यार्थी काल में भी श्रीकृष्ण का ‘जल से जुड़ाव’ शिप्रा नदी के तट पर उज्जयिनी (उज्जैन) में गुरु सांदीपनि के आश्रम के माध्यम से रहा। इसी तरह समुद्र के बीच में द्वारिका (पाठांतर द्वारका) की स्थापना से भी श्रीकृष्ण जहां जल हो, वहीं पर मानव सभ्यता के विकास की संभावना और जलस्रोतों (कुएं, तालाब, झील-झरने, नदी, समुद्र) का महत्त्व जानने-पहचानने का संदेश देते हैं। प्रसंगवश यह चर्चा भी जरूरी है कि भारतीय संस्कृति में हर देवता का किसी-न-किसी रूप में नदी से संबंध अवश्य है, जैसे गंगा नदी का संबंध ब्रह्मा के कमंडल, विष्णु के पांव के नख और शिव की जटाओं से है।
महाभारत युद्ध में जिस अश्वत्थामा के दिव्य अस्त्रों से उत्तरा (अभिमन्यु की पत्नी) के गर्भस्थ शिशु (परीक्षित) की मृत्यु हो गई थी, उस मृत शिशु को श्रीकृष्ण ने योगबल से अभिमंत्रित जल के छिड़काव से पुनर्जीवित कर दिया था और ‘योगेश्वर कृष्ण’ कहलाए। यहां भी श्रीकृष्ण यही संदेश दे रहे हैं कि समय पर जल मिल जाए तो मृत्यु के मुख में गए व्यक्ति के प्राण भी लौट सकते हैं यानी ‘जल ही जीवन’ है। जल की तरह ही पेड़-पौधों के प्रति भी श्रीकृष्ण का प्रेम उनकी बाल-लीलाओं से स्पष्ट है। कदम्ब वृक्षों पर चढऩा/उतरना/ खेलना तथा वृंदावन में विचरना श्रीकृष्ण के वृक्ष प्रेम का प्रतीक है। सांदीपनि आश्रम में जब कृष्ण पढ़ते थे तो गुरु के लिए सुदामा के साथ लकडिय़ां बीनने जाते थे, हरे वृक्षों को काटने नहीं। काटते भी थे तो सूखे और ठूंठ हुए वृक्षों को। सार यही है कि पर्यावरण संरक्षण के प्रथम प्रवक्ता हैं श्रीकृष्ण।