scriptआख्यान: कृष्ण जिससे जैसे मिले, उसके लिए उसी रूप में रह गए | Shri Krishna remained the same for anyone he met. | Patrika News

आख्यान: कृष्ण जिससे जैसे मिले, उसके लिए उसी रूप में रह गए

locationनई दिल्लीPublished: Jan 20, 2021 11:57:23 am

Submitted by:

Mahendra Yadav

सुशीला ने सुदामा से कहा, मित्र का स्मरण करते हुए यदि उसकी सामथ्र्य पर ध्यान जाए, तो मित्रता दूषित हो जाती है। स्मरण रखिए कि कृष्ण वही हैं जिनके साथ आपने गुरुकुल के दिनों में भिक्षाटन किया था।

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सर्वेश तिवारी श्रीमुख
(पौराणिक पात्रो और कथानको पर लेखन)

तीन मुट्ठी तन्दुल? यह भला कैसा उपहार हुआ सुशीला? माना कि हम दरिद्र हैं, पर वह तो नरेश हैं न… नरेश के लिए भला तन्दुल कौन ले जाता है?’ द्वारिका जाने को तैयार सुदामा ने चावल की पोटली बांधती पत्नी से कहा। ‘उपहार का संबंध प्राप्तकर्ता की दशा से अधिक दाता की भावना से होता है प्रभु! और एक भिक्षुक ब्राह्मण के घर के तीन मुट्ठी चावल का मोल श्रीकृष्ण न समझेंगे तो कौन समझेगा? आप निश्चिंत हो कर जाइए।’ सुशीला उस ब्राह्मण कुल की लक्ष्मी थीं, आंचल में परिवार का सम्मान बांध चलने वाली देवी।
सुदामा की झिझक समाप्त नहीं हो रही थी। बोले, ‘किंतु वे नरेश हैं सुशीला! हमें उनकी पद-प्रतिष्ठा का ध्यान तो रखना ही होगा न! तुम यह सब छोड़ दो, मैं यूं ही चला जाऊंगा।’ ‘मित्र का स्मरण करते हुए यदि उसकी सामथ्र्य पर ध्यान जाने लगे, तो मित्रता दूषित हो जाती है। भूल जाइए कि वे द्वारिकाधीश हैं, बस इतना स्मरण रखिए कि वह आपके वही मित्र हैं जिनके साथ आपने गुरुकुल के दिनों में भिक्षाटन किया था।’ ‘कैसी बातें करती हो देवी! वे बचपन के दिन थे। अब समय ने सब बदल दिया है…।’
‘समय सामान्य मनुष्यों को बदलता है, कृष्ण जैसे महानायकों को नहीं। वह एक शरीर के अंदर अनेक रूपों में विद्यमान हैं। वह जिससे जिस रूप में मिले, उसके लिए सदैव उसी रूप में रह गए। वह ब्रज की गोपियों के लिए अब भी माखनचोर हैं, नन्द-यशोदा के लिए अब भी नटखट बालक हैं, राधिका के लिए अब भी प्रिय सखा हैं। वह अर्जुन के लिए जो हैं, वह द्रौपदी के लिए नहीं हैं। वह गोकुल के लिए दूसरे कृष्ण हैं, द्वारिका के लिए दूसरे… हस्तिनापुर के लिए उनका रूप कुछ और है और मगध के लिए कुछ और। आप जा कर देखिए तो, वह आपको अब भी गुरुकुल वाले कन्हैया ही दिखेंगे। यही उनकी विराटता है, यही उनका सौंदर्य…।’ सुशीला ऐसे बोल रही थीं, जैसे कृष्ण सुदामा के नहीं, उनके सखा हों।
सुदामा मुस्करा उठे। बोले – ‘इतना कहां से देख लेती हो देवी?’ सुशीला ने हंस कर उत्तर दिया, ‘पुरुष अपनी आंखों से संसार को देखता है, और स्त्री मन से… धोखा तो दोनों ही खाते हैं, पर कभी बदलते नहीं।’ सुदामा ने पोटली उठाई, ईश्वर को प्रणाम किया और निकल पड़े… वह नहीं जानते थे कि द्वारिका में बैठा उनका कन्हैया आंखों में अश्रु लिए उनकी ही प्रतीक्षा कर रहा था।
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