समझौते के मुताबिक सिंधु नदी सहित इसकी छह शाखाओं में से पूर्वी नदियों रावी, सतलुज और व्यास का नियंत्रण भारत के पस और पश्चिमी नदियां सिंधु, चेनाब और झेलम का नियंत्रण पाकिस्तान को मिला।
महत्वपूर्ण बात यह है कि इन पश्चिमी नदियों का उद्गम भले ही चीन के क्षेत्र से हो किंतु ऊपर से नीचे की ओर बहाव के लिहाज से ऊपर का हिस्सा भारत से होकर गुजरता है और फिर यह नीचे की ओर यह पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर की ओर से होता हुआ पाकिस्तान के अन्य हिस्से में चला जाता है।
सिंधु नदी व्यवस्था के समझौते के तहत भारत इन पश्चिमी नदियों के जल का केवल 20 फीसदी ही घरेलू उपयोग यानी पीने, नहाने और साफ-सफाई के लिए कर सकता है। वास्तविकता यह है कि भारत अपने हिस्से के इस पानी का पूरा उपयोग नहीं कर पाता।
इसके अलावा भारत 13.40 करोड़ एकड़ भूमि क्षेत्र में इन नदियों के जल का उपयोग कृषि के लिए किया जा सकता है किंतु इसके लिए पाकिस्तान की अनुमति की आवश्यकता होती है। जहां तक समझौते में अघरेलू इस्तेमाल यानी पानी के अन्य उपभोग का सवाल है तो भारत सीमित दायरे में पानी का संग्रहण कर सकता है। जल विद्युत परियोजनाएं लगा सकता है।
परिवहन के साथ लकडिय़ों को तैरा कर नीचे लाने के लिए बहाव का इस्तेमाल भी कर सकता है। इस समझौते को रद्द नहीं किया जा सकता, इसे केवल संशोधित ही किया जा सकता है। भारत युद्ध जैसी आपात परिस्थितियों में भी इस समझौते से पीछे नहीं हटा।
समझौते के मुताबिक नदी जल आयोग की स्थापना भी हुई जिसका काम आपात परिस्थिति में नदी जल का समायोजन – संतुलन करना है। खासतौर पर तकनीकी मुद्दों को निर्धारित करने का काम इस आयोग के जिम्मे है। यद्यपि समझौता केवल पानी की हिस्सेदारी को लेकर ही नहीं है, फिर भी शर्तों के अनुसार भारत नदी और इसके जल के इस्तेमाल के आंकड़े पाकिस्तान को नियमित रूप से उपलब्ध कराता है।
चूंकि अपने क्षेत्र में नदी व्यवस्था के प्रबंधन और कार्य कुशलता के मामले में पाकिस्तान की कमजोरी जगजाहिर है। इसे छिपाने के लिए वह हमेशा भारत पर अपने हिस्से का पानी चुराने का आरोप लगाता रहता है।
जहां तक जलविद्युत परियोजनाओं के निर्माण का सवाल है तो समझौते के मुताबिक भारत को इस संबंध में छह महीने पूर्व पाकिस्तान को तकनीकी सूचना देनी होती है लेकिन पाकिस्तान इस मामले में जानबूझकर अड़ंगे लगाकर देरी करता है।
चाहे सिंधु नदी पर चुलबुल परियोजना हो या चेनाब पर बगलिहार परियोजना या फिर झेलम पर किशनगंगा परियोजना सभी में पाकिस्तान ने रुकावटें डालीं। कभी परियोजना की जांच तटस्थ विशेषज्ञों के पास भेजी गई तो कभी हेग स्थित ‘स्थायी मध्यस्थता न्यायालय’ में शिकायत की गई। लेकिन, मामूली परिवर्तन के साथ फैसला भारत के पक्ष में ही आया।
पाकिस्तान ने विवाद को कभी भी नदी जल आयोग के जरिए निपटाने का प्रयास नहीं किया। केवल एक बार 2010 में आयोग के माध्यम से कहा गया कि पाकिस्तान सिंधु नदी जल समझौते को संशोधित करने की इच्छा रखता है। इसके अलावा सिंधु नदी जल व्यवस्था के तहत नदियों का उचित रख-रखाव नहीं हो पा रहा। पानी लवणीय हो रहा है। भूजल स्तर में भी कमी आ रही है।
फिर पर्यावरण परिवर्तन के मुद्दे भी उठ खड़े हुए हैं। नदी के बहाव पर विपरीत असर पड़ रहा है। इन सारी परिस्थितियों के मद्देनजर नदी जल आयोग ने लाहौर में बैठक बुलाने का प्रस्ताव दिया है। भारत ने इस बैठक में भाग लेने की सहमति दे दी है।
एक पहलू यह भी है कि पाकिस्तान आतंकवाद को प्रश्रय देने वाला देश है और भारत के विरुद्ध उसकी आतंकी कार्रवाई जारी रहती है। ऐसे में पाकिस्तान पर दबाव बनाने के लिए भारत इस समझौते का रणनीतिक उपयोग भी कर सकता है। इसी संदर्भ में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था, नदी में खून और पानी दोनों साथ नहीं बह सकते।
हकीकत में तो नदी के जल को लेकर पाकिस्तान के आरोप झूठे हैं किंतु वास्तव में भारत सिंधु नदी व्यवस्था के तहत जल का इस्तेमाल अपने लिए अधिक इस्तेमाल करने लगे तो पाकिस्तान की 60 फीसदी कृषि को नुकसान पहुंच सकता है। इस बात को भारत ही नहीं पाकिस्तान और उसका नजदीकी मित्र चीन भी अच्छी तरह समझते हैं।
वर्तमान में चीन के आर्थिक हित पाकिस्तान में हैं। और, जिस ऊपरी बहाव क्षेत्र का रणनीतिक लाभ भारत को मिलता है, वह लाभ ब्रह्मपुत्र नदी के मामले में चीन को मिलता है। बदले हुए अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य में चीन रणनीतिक रूप से अपनी परोक्ष मौजूदगी दर्शा सकता है।
बदले ही हालात में भारत बहुत ही सूझबूझ के साथ आगे बढ़ेगा। यही वजह है कि नदी जल आयोग की बैठक में रणनीतिक और राजनैतिक विषयों पर बातचीत के बजाय तकनीकी विषयों पर ही बात होने की संभावना है।