भारत में लघु और सीमांत किसानों
के बिना कृषि की कल्पना नहीं की जा सकती और गांवों के बिना कोई लघु और सीमांत किसान
नहीं रह सकता। यह सामाजिक तौर पर देश के हित में है कि इन छोटी जोत वाले किसानों की
संख्या में लगातार बढ़ोतरी होती रहे। राष्ट्र को इन किसानों की उपज की उत्पादकता
बढ़ाने में सहयोग देना चाहिए।
कुछ दिनों
पहले दिल्ली में एक किसान ने सार्वजनिक तौर पर आत्महत्या की। इस चौंका देने वाली
घटना ने भारत में लंबे समय से उपेक्षित पड़े कृषि और गांव के मुद्दे को फिर से
चर्चा में ला दिया। इस विषय की उपेक्षा चंद दिनों की नहीं थी बल्कि यह दशकों से
होती रही है। यह केवल आर्थिक उपेक्षा भर नहीं है बल्कि इस मामले की जड़ें काफी गहरी
हैं।
वास्तव में तो इसकी उत्पत्ति शहरी सभ्यता के प्रति झुकाव और ग्रामीण संस्कृति
के प्रति नकारात्मक पूर्वाग्रह के कारण हुई है। ग्रामीणों और उनकी चीजों से शहरी
लोग घृणा तो नहीं अलबत्ता नापसंदगी जरूर रखते रहे हैं। यही वजह रही कि लंबे समय से
अभिजात्य वर्ग शहरी लोगों को आधुनिक और बेहतर बताता रहा।
ग्राम स्वराज्य के संबंध
में लिखे महात्मा गांधी के पत्र के प्रत्युत्तर में 1945 में पंडित जवाहर लाल नेहरू
ने ग्रामीणों को दकियानूस व झगड़ालू प्रवृत्ति वाला कहा। उन्होंने 9 अक्टूबर 1945
को लिखे पत्र में गांवों को बौद्धिक व सांस्कृतिक रूप से पिछड़ा और ग्रामीणों को
संकुचित दृष्टिकोण वाला कहा।
हालांकि कार्ल मार्क्स ने तो 1853 में एक टिप्पणी में
इन्हें आधा जंगली तक कह डाला था। बात केवल भारत की ही करें तो महात्मा गांधी नेहरू
के साथ इस मामले पर सार्वजनिक बहस करना चाहते थे लेकिन नेहरू ने इस मुद्दे को यह
कहकर समाप्त कर दिया कि स्वतंत्र भारत की लोकतांत्रिक सरकार ही इस मामले पर बहस
करेगी। बाद में गांधी जी का निधन हो गया और बहस नहीं हो सकी। फिर देश, इस मुद्दे पर
बिना किसी बहस के नेहरू की दिखाई राह पर चल निकला।
विकास यानी शहरीकरण
इन
स्थितियों के परिणामस्वरूप स्वतंत्रता के बाद शहरीकरण विकास की पूर्व शर्त बन गया।
इससे शहरी भारत का प्रभुत्व हो गया और गांव हाशिये पर चले गए। इसका अर्थ यह निकाला
गया कि जब तक संपूर्ण शहरीकरण नहीं हो जाता तब तक गांवों को सहन करना ही पड़ेगा।
वैश्वीकरण की शुरूआत से ही समाजवादी भारत के इस सामाजिक-आर्थिक दर्शन को खुलकर कहा
जाने लगा।
गांवों के प्रति इसी पूर्वाग्रह को युवा मेधावी भारतीयों को समाजशास्त्र
और अर्थशास्त्र के नाम पर आज पढ़ाया भी जा रहा है। यही वे बातें हैं जिनकी मीडिया
व्याख्या करता रहता है, प्रबुद्धजन जोर देते हैं और अर्थशास्त्री जिनकी वकालत करते
हैं। लेकिन, राजनीति तो संख्या का आंकड़ा है और वहां ग्रामीणों का प्रभुत्व है।
राजनेता शासन के पूर्वाग्रह को बड़ी कुशलता से छिपा लेते हैं और गांवों, ग्रामीणों
और खेती को प्रोत्साहित करने की बात करते हैं। सभी दल ग्रामीण इलाकों के हितों के
नारे लगाते हैं। विदेश में लंबी और गुप्त यात्राओं का लुत्फ उठाने वाले कुछ नेता तो
ग्रामीण भारत की पदयात्रा भी करते हैं।
यह विडंबना ही है कि जिस देश में दो
तिहाई लोग खेती पर आश्रित हैं और गांवों में रहते हैं, उस किसान को सम्मान की नजर
से नहीं देखा जाता। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन (एनएसएसओ) की 2003 की रिपोर्ट
बताती है कि यदि कृषि से अलग अन्य कोई स्थाई रोजगार मिले तो देश के 40 फीसदी किसान
खेती छोड़ने को तैयार हैं।
गांवों में आ चुके इस आधुनिक अर्थशास्त्र और खेती के
प्रति पूर्वाग्रह का ही प्रत्यक्ष परिणाम है, भारत में कृषि-आर्थिक संकट। इन
परिस्थितियों में भारत के समक्ष खेती और खाद्य सुरक्षा का सबसे बड़ा खतरा उत्पन्न
हो रहा है। विषय का पूर्व संदर्भ और मूल कारणों को जाने बिना ग्रामीण और कृषि
अर्थशास्त्र के संकट की भयावहता को समझ पाना दुष्कर है। वास्तव में ईमानदारी से सब
बातों को समझने की आवश्यकता है।
पर्याय हैं गांव और कृषि
1950 के बाद जिन
लोगों की आर्थिक सोच ने ग्रामीण जीवन को अविकसित करार दिया, वास्तव में वे कृषि के
आधारभूत तथ्यों के प्रति आंखे मूंदे रहे। भारत में ग्रामीण जीवन को कृषि से अलग
किया ही नहीं जा सकता। भारत में कृषि का भविष्य गांवों पर आधारित है। भारत में जो
लोग कृषि के समर्थक हैं, वे कहते हैं कि गांव खेती से ही जीवित हैं लेकिन इसे इस
तरह भी कहा जा सकता है कि गांव से ही खेती बची हुई है। ना तो गांव और ना ही खेती,
एक दूसरे के बिना रह सकते हैं। यदि भारत में गांव नहीं रहे तो खेती समाप्त हो
जाएगी।
भारत में खेती के लिए गांव इसलिए जरूरी हैं क्योंकि छोटे और सीमांत
किसान जिनके पास पांच एकड़ से कम भूमि है, वे खेती पर आश्रित जनसंख्या का 85
प्रतिशत हैं। वे केवल गांवों में ही रहते हैं। उनके बिना भारतीय खेती मर जाएगी।
अगली दो पीढियों तक भारत में ग्रामीणों की जनसंख्या शहरी जनसंख्या से अधिक ही रहने
वाली है। वर्ष 2050 में भारत की जनसंख्या यदि 160 करोड़ रही तो ग्रामीण जनसंख्या
इसकी आधी होगी। दस साल पहले भारत में लघु और सीमांत किसान परिवारों की संख्या 9.80
करोड़ थी जो अब 11.70 करोड़ हो गई है।
कृषि जनसंख्या के आंकड़ों के मुताबिक लघु और
सीमांत किसान परिवार घरों की संख्या, कुल 13.80 करोड़ किसान परिवार घरों का 85
फीसदी है। उल्लेखनीय है कि 1961 में इनकी संख्या 62 फीसदी, 1991 मेें 78 फीसदी,
2001 में 81 फीसदी और 2011 में 85 फीसदी हो गई।
यह बात आधुनिक अर्थशाçस्त्रयों की
आंखे खोल देगी कि जब भारत का सकल घरेलू उत्पाद 2003 से 2011 के बीच 9 से 10 फीसदी
के बीच था तब भी लघु और सीमांत किसानों की संख्या कम नहीं हुई। आधुनिक अर्थशास्त्री
इस तथ्य की सच्चाई बता सकते हैं कि यह संख्या 1.8 करोड़ बढ़ गई। लघु और सीमांत
किसानों की संख्या में बढ़ोतरी इस बात को गलत साबित करती है कि विकास और शहरीकरण
स्वत: परिवर्तन लाएगा या लोगों को कृषि से गैर कृषि कार्यो की ओर ले जाएगा।
एक
मजेदार तथ्य यह भी है कि लघु और सीमांत किसान बड़े खेतों वाले किसानों के मुकाबले
कम क्षमतावान हों, ऎसा बिल्कुल भी नहीं है बल्कि ये अपेक्षाकृत अधिक उत्पादक हैं।
ये 46 फीसदी खेती योग्य भूमि कृषि के काम लेते हैं और 52 फीसद अनाज, 70 फीसदी
सब्जियां और 55 फीसदी फलों की पैदावार के साथ 69 फीसदी दूध भी संकलित करते हैं।
दुनिया ने बहुत देर में जाना कि आर्थिक पैमाने कृषि पर काम नहीं करते। 1920 में
रूसी अर्थशास्त्री अलेक्जेंडर चेनोव ऎेसे पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने लघु और
पारिवारिक खेती को बड़े खेतों में होने वाली कृषि के मुकाबले आर्थिक रूप से बेहतर
माना।
उनके यह सच्चाई बयान करने पर कि परिवार और खेती समाजवादी या पूंजीवादी नहीं
होते, पहले उन्हें प्रताडित किया गया और बाद में मरवा दिया गया। रूस में जब लेनिन
और स्टालिन के तौर-तरीके विफल हो गए तो समाजवाद उपरांत रूस ने चेनोव के अर्थशास्त्र
को समझा और घरेलू पारिवारिक खेती की अनुमति दी। परिणाम यह है कि रूस में घरेलू
पारिवारिक खेती करने वालों के पास तीन फीसदी कृषि योग्य भूमि है लेकिन रूस के लोगों
द्वारा खाई जाने वाले सामग्री का 50 फीसदी पैदा करते हैं।
स्पष्ट हैं
समीकरण
भारत में लघु और सीमांत किसान अधिकतर अपने इस्तेमाल के लिए ही खेती करते
हैं। यूएनडीपी की 2009 की रिपोर्ट के मुताबिक खाद्य पैदावार के कुल बाजार अधिशेष
में इनकी हिस्सेदारी 20 फीसदी है। भारत की खाद्य सुरक्षा उन्हीं पर निर्भर रहती है।
खाद्य एवं कृषि संगठन के मुताबिक भारत की कृषि अर्थव्यवस्था इन लघु व सीमांत
किसानों पर ही बहुत अधिक निर्भर है।
अब क्या संत या महात्मा की आवश्यकता है जो आकर
यह कहे कि भारत में खाद्य सुरक्षा और कृषि अर्थव्यवस्था के लिए लघु किसान और लघु
खेती का जीवित रहना आवश्यक है? लघु किसान अपने खेतों पर नहीं, वे इनके आसपास ही
रहते हैं। उन्हें खेतों से अलग नहीं किया जा सकता। वे कस्बों और शहरों में रहकर
खेती का प्रबंधन नहीं कर सकते। उन्हें गांवों में ही रहना पड़ेगा। उन्हें रहने के
लिए गांवों की आवश्यकता है। समीकरण बिलकुल स्पष्ट है।
भारत में लघु और सीमांत
किसानों के बिना कृषि की कल्पना नहीं की जा सकती और गांवों के बिना कोई लघु और
सीमांत किसान नहीं रह सकता। वे भारत के लिए महत्वपूर्ण राष्ट्रीय संपत्ति हैं। यह
सामाजिक तौर पर देश के हित में है कि इन छोटी जोत वाले किसानों की संख्या में
बढ़ोतरी होती रहे और इसीलिए राष्ट्र को इन किसानों की उपज की उत्पादकता बढ़ाने में
सहयोग देना चाहिए। इन्हें अधिक से अधिक साधन-संपन्न बनाना चाहिए। कम से कम आधुनिक
अर्थशाçस्त्रयों को तो इन्हें बोझ समझने की बात छोड़ ही देनी चाहिए।
एस. गुरूमूर्ति, अर्थशास्त्री