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स्पंदन : मां : द्वैत भी, अद्वैत भी-1

Published: Aug 01, 2021 07:44:24 am

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Gulab Kothari

स्त्री और उसके सभी स्वरूप, चाहे पिछली पीढिय़ों के हों, अपनी पीढ़ी के हों अथवा नई पीढ़ी के (पुत्री, पौत्री आदि) सभी का सम्बन्ध मूल में कामना से होता है।

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– गुलाब कोठारी

चहुंमुखी अर्थात् सम्पूर्णता के साथ किया गया वरण (चयन) ही आवरण कहलाता है। वरण में कामना रहती है और माया का ही दूसरा नाम कामना है। अत: माया और आवरण पर्यायवाची कहलाते हैं। वरने की प्रक्रिया को वरण कहते हैं। इसमें मांगना, चुनना, छांटना आदि क्रियाएं समाहित होती हैं। कामना-इच्छा को भी वर कहते हैं, क्योंकि उनका वरण करने के बाद ही तो कामना पूर्ति के उपाय किए जाते हैं। ब्रह्म में कामना है; किन्तु विस्तार पाने की। माया स्वयं कामना है। अत: स्त्री और उसके सभी स्वरूप, चाहे पिछली पीढिय़ों के हों, अपनी पीढ़ी के हों अथवा नई पीढ़ी के (पुत्री, पौत्री आदि) सभी का सम्बन्ध मूल में कामना से होता है। सम्बन्ध कामना का धरातल तय करता है, बुद्धि उसका स्वरूप तय करती है- भावों के अनुरूप। भाव की दिशा ही कामना को सकारात्मक या नकारात्मक रूप देती है।
चूंकि हमारा निर्माण भी आवरणों के कारण होता है अत: माया से ही हमें सीखना पड़ता है कि आवरण क्या हैं, उनका आकलन कैसे करें, उनको हटाएं कैसे? जीवन में स्त्री के सारे रूप इसी क्रम में देखे जाते हैं। हर रूप किसी न किसी मूल आवरण की व्याख्या है। माया के कारण इस जगत् को मिथ्या कहा जाता है। ब्रह्म सत्य है। जीवन के सात धरातल हैं। शरीर में सात धातुएं हैं। सृष्टि में सप्त लोक हैं। सात ही शरीर में चक्र हैं। इन्द्र धनुष के सात ही रंग हैं। संगीत में सात सुर और पृथ्वी/द्युलोक में सात-सात महासागर हैं। सृष्टि के सभी तत्व इन सातों लोकों में व्याप्त रहते हैं, किन्तु स्वरूप एक सा नहीं होता। माया अथवा मां भी इन सातों लोकों में, तीनों गुणों (सत-रज-तम) में, पंचकोश में भिन्न-भिन्न रूप से रहती हैं। चन्द्रमा से शरीर में बनने वाले 28 सह प्रतिमास सात पीढिय़ों के अंश हमारे शरीर में लाते रहते हैं। इनके अनुपात से भी माया का कार्य प्रभावित होता रहता है।
मां पृथ्वी को भी कहते हैं। बीज को आवरित करती है। उसका पोषण करती है। पेड़-पौधों के शरीर का निर्माण करती है। बीज का निर्माण भी तो कोई मां ही करती होगी। बीज के वपन से पेड़ के जीवनपर्यंत मां साथ रहती है। साथ तो हमारे भी रहती है, किन्तु दृष्टि भेद के कारण दिखाई नहीं देती। हम कहां जीवन में मां देखते हैं? पत्नी को मां कहो तो महीने भर बात नहीं करे। बेटी, पोती को मां कह दो, सब मूर्ख कहने लग जाएंगे। जबकि भिन्न-भिन्न अवस्था भेद के कारण ये सब रूप मां के ही हैं। उसके बिना कुछ नहीं है। मां आवरण है। छुपाकर रखती है। पत्नी भी गृहस्थाश्रम में आवरण है। बाद में मित्र बनकर मां के स्वरूप में बदल जाती है। संन्यासाश्रम में पति को स्त्रैण बना चुकी होती है। दाम्पत्य रति से देवरति में पति को प्रतिष्ठित कर देती है। यहीं से मोक्ष मार्ग की शुरुआत होती है। वैराग्य में प्रवेश भी पत्नी ही करा सकती है। संसार का कोई गुरु यह कार्य नहीं कर सकता। विरक्ति को झेलती भी वही है। ऐश्वर्य की साक्षी भी पत्नी-मां होती है। दैहिक पत्नी नहीं हो सकती। वह तो मोह निद्रा के लिए आमंत्रण मात्र है। उसका लक्ष्य तो कुछ और ही होता है। जीवन के हर मोड़ पर, बदलती हुई कामनाओं की पूर्ति करे, आवरणों के भेद खोलती जाए। पहले कामना में फंसाना, फिर मुक्त करने को प्रेरित भी करना, सहयोग करना, देखते जाना कि कौन-से धरातल के आवरण नहीं हट पा रहे। सारे आवरणों को हटाकर मोक्ष तक पहुंचाना ही उसका लक्ष्य है। इसके लिए उसके पास भी सात जन्म का समय होता है। गहरी समझ रखने वाली पत्नियां समय से पूर्व पति में विरक्ति का भाव पैदा कर देती है। ऐसे पति सौभाग्यशाली होते हैं। जो इस विरक्ति को अभाव मानकर पूर्ति की तलाश करते हैं, वे फूटे भाग्य के होते हैं। वे पत्नी का सम्मान नहीं कर सकते। अपमान भी करें, तो आश्चर्य नहीं। मां रूप में सोच पाना तो उनके लिए असंभव है। उनको तो पशु रूप आहार-निद्रा-भय-मैथुन के बाहर जीना ही नहीं आता। पूरी उम्र गृहस्थाश्रम की तरह जीते हैं।
सृष्टि की शुरुआत आवरण से- अव्यय पुरुष रूप। मन पर प्राण-वाक् के आवरण। महामाया के आवरण से अक्षर पुरुष। प्रकृति के आवरण से क्षर पुरुष। ये सारे आवरण प्रसव पूर्व के हैं। पंच महाभूतों और तन्मात्राओं से शरीर का निर्माण। प्रसव बाद जगत् के भौतिक आवरण चढ़ते हैं। ज्ञान के नए आवरण चढ़ते हैं। परिवार, धर्म, समाज, देश, शिक्षा आदि के आवरण चढ़ते हैं। इनको वह व्यक्ति समझ पाता है, जो संस्कारवान है। सभी आवरण सूक्ष्म होते हैं। मां ही गुरु बनकर पेट में ही इन आवरणों से परिचय कराती है। जीव का रूपान्तरण करती है। यही व्यक्तित्व जीवन का आधार होता है।
बचपन की गतिविधियों में समानता का भाव भी लडक़े-लडक़ी के पालन-पोषण में अधिक बढ़ गया है। अत: आकर्षण घटता हुआ मात्र शरीर पर ठहरने लगा है। मां का मूल कार्य इस पौरुष भाव को ही स्त्रैण बनाना है। इसके बिना पुरुष के मन में (ब्रह्म) आकर्षण कैसे पैदा होगा। मन के सारे आवरण उतरने के बाद यह स्थिति भक्ति (अंग) रूप में प्रकट होती है। बहुत लम्बी यात्रा है यह। पूरी 25 वर्ष की। इन पच्चीस वर्षों की यात्रा में पत्नी रूप मां (शक्ति) क्या करती है, कैसेे आवरणों का भेद समझाती है, यह महत्त्वपूर्ण है। इसके लिए उसको प्रशिक्षण नहीं लेना पड़ता। अधिकांश पाशविक आवरण तो वह पेट में ही हटा देती है। उसके अलावा कोई नहीं जानता कि जीव कहां से चलकर आया है। उसके भविष्य की आवश्यकताएं क्या हैं। सम्पूर्ण छ: माह का संसर्ग शिशु (गर्भस्थ) के लिए रूपान्तरण का काल होता है। जीव स्वयं भी अपने बारे में सब कुछ जानता है।
अपने भावी लक्ष्य के अनुरूप ही मां-बाप का चयन करता है। ध्वनि स्पन्दनों के जरिए मां का संतान से संवाद बना रहता है। नाभि ही ध्वनि स्पन्दनों का केन्द्र है। यहां मां का दैहिक ज्ञान काम नहीं करता। उसका अतीन्द्रिय ज्ञान, स्वप्नों में दिखाई पड़ती ईश्वरीय आस्था तथा मां के स्वरूप की नैसर्गिक शक्तियां काम करती हैं। उसकी अपनी भी मां होती है। विद्या, कला, राग, संयोग और काल का ज्ञान माया से मिलता है। मां और संतान के हृदयों के ब्रह्मा-विष्णु-इन्द्र प्राण इस अवधि में एकाकार हो जाते हैं। इसी से सन्तान के मन में उठने वाली इच्छाओं की दिशा तय हो जाती है। संस्कार का यही तो स्वरूप है। तभी मां संतान के भविष्य को जानती है।
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