उत्तर प्रदेश में विधानसभा के अब तक हुए पांच चरणों के प्रचार ने समस्त मर्यादाओं को तार-तार कर दिया है। चुनाव आयोग ने एक बार फिर राजनीतिक दलों को पत्र लिख भड़काऊ भाषणों से बाज आने की नसीहत दी है जो खानापूर्ति से अधिक कुछ नहीं।
हर चुनाव में आयोग इसी तरह की नसीहतें देता है लेकिन नतीजा क्या निकलता है? वही ढाक के तीन पात। इसका कारण भी सबको पता है। आयोग को भी और राजनीतिक दलों को भी। आयोग के लिखे ऐसे तमाम पत्र राजनीतिक दल शायद अपनी फाइल में भी ना लगाते हों।
उस पर कार्रवाई करने के बारे में सोचना भी नहीं चाहिए। आयोग की मजबूरी यही है कि वह नसीहत देने के अलावा कुछ कर ही नहीं सकता। भड़काऊ भाषण देने पर न तो आयोग किसी दल की मान्यता रद्द कर सकता है और न किसी प्रत्याशी को चुनाव लडऩे से रोक सकता है।
उत्तर प्रदेश में चुनाव प्रचार के दौरान सरेआम माहौल को साम्प्रदायिक रंग देने की कोशिश की जा ही है। इस मामले में न कोई दल पीछे है और न कोई नेता। जब प्रधानमंत्री ही श्मशान और कब्रिस्तान की बात उठाने लग जाएं तो दूसरे नेताओं से क्या उम्मीद की जाए?
विकास, भ्रष्टाचार और रोजगार की जगह दिवाली और ईद की बातें हो रही हैं। अपराधी छवि के लोग चुनाव लड़ भी रहे हैं और मतदाताओं को धमका भी रहे हैं। वोट खरीदने के लिए पैसे भी बांटे जा रहे हैं और शराब से लेकर साडिय़ां भी। आदर्श आचार संहिता का खुलेआम उल्लंघन किया जा रहा है लेकिन आयोग कुछ कर नहीं सकता।
हर सरकार आयोग की ताकत बढ़ाने की बात तो करती है लेकिन उसे अधिकार देती नहीं। अपराधियों पर शिकंजा कसने की बात होती है लेकिन कानून बनाने को कोई आगे नहीं आता। हमाम में सब एक-से जो ठहरे। चुनाव जीतने के लिए नेता वो सब कर रहे हैं जो वे कर सकते हैं। चुनाव प्रचार मजाक बनकर रह गया है। मतदान का प्रतिशत बढऩे को हम लोकतंत्र की जीत मान रहे हैं जबकि वाकई में जो कुछ हो रहा है, वो लोकतंत्र की हार है।