scriptspotlight: हकीकत उजागर करने की ‘सजा’ यह तो नहीं | spotlight: Editorial and reporting in Kashmir | Patrika News

spotlight: हकीकत उजागर करने की ‘सजा’ यह तो नहीं

Published: Jul 22, 2016 03:10:00 am

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कश्मीर घाटी में अखबारों को किस आधार पर सेंसर किया गया यह किसी को पता नहीं। किसने, क्यों और किस स्तर पर प्रेस को सेंसर करने का आदेश दिया?

कश्मीर घाटी में अखबारों को किस आधार पर सेंसर किया गया यह किसी को पता नहीं। किसने, क्यों और किस स्तर पर प्रेस को सेंसर करने का आदेश दिया? चिंताजनक तथ्य यह है कि आदेश की वैधता का परीक्षण तक नहीं कर सकते। यह तो छत्तीसगढ़ के माओवाद प्रभावित बस्तर इलाके से पत्रकारों को निकाले जाने की याद दिलाता है। 
ऐसे तो बिना कोई आधार बताए कोई दरोगा भी चाहेगा तो कहीं भी प्रेस को बंद करने के आदेश दे देगा। सेंसरशिप का आधार यदि यह बताया जा रहा है कि उसकी वजह से घाटी में दंगे भड़के तो वह ज्यादा हास्यास्पद है। देखा जाए तो नेशनल मीडिया व चैनल जो पढ़ा व दिखा रहे थे उसकी वजह से हालात बिगड़े। ऐसे में पाबंदी इन पर लगाई जानी चाहिए थी। लोकल मीडिया अपने बड़े दायित्व के रूप में सुरक्षा बलों की कार्यप्रणाली पर निगरानी कर रहा था। 
इस तरह की प्रेस सेंसरशिप शायद इसीलिए लगाई गई क्योंकि मीडिया सही तथ्यों को उजागर कर रहा था। हैरत की बात यह है कि देशहित में कही गई बातों को ही राष्ट्रविरोधी करार दे दिया जाता है। इस तरह की प्रेस सेंसरशिप को कतई जायज नहीं ठहराया जा सकता। ऐसा करके राज्य सरकार ने सत्ता में रहने का अधिकार खो दिया है। बेहतर तो यह होता कि सरकार प्रेस का इस्तेमाल घाटी में माहौल सामान्य बनाने के लिए करती। जिस मीडिया के सामने बुरहान वानी के एनकाउंटर की खबर को जोर-शोर से प्रचारित किया जाता है। 
वही आखिर कानून-व्यवस्था के लिए खतरा कैसे हो सकता है? रही बात शासन के इस तर्क की कि इस पाबंदी से अफवाहों पर रोक लगाई जा सकेगी, वह तो नितांत बेतुकी है। इससे तो अखबारों के अभाव में लोगों के सोशल मीडिया की ओर रुख करने का खतरा ज्यादा बढ़ जाता है। अफवाहें सोशल मीडिया के जरिए कितनी तेजी से फैलती है, यह किसी से छिपी नहीं है। ऐसे हालात के लिए मीडिया संगठनों से जुड़े लोग कम जिम्मेदार नहीं हैं।
सम्पादकीय और रिपोर्टिंग के आधार पर लेखों का प्रकाशन बंद हो जाए तो यह माना जाना चाहिए कि विरोध केवल बयानबाजी और ज्ञापन आदि देने तक ही सीमित नहीं रहना चाहिए। हमने यह भी देखा है कि कश्मीर में पत्रकारों पर हमले भी हुए लेकिन इस बारे में सोशल मीडिया में ही ज्यादा लिखा गया। मुख्यधारा के मीडिया ने इसे काफी कम अहमियत दी। इस तरह की अघोषित सेंसरशिप भविष्य में न हो इसके लिए मीडिया व इससे जुड़े संगठनों को कोई न कोई कानूनी दायरा तय करने के बारे में सोचना होगा। 
घाटी में इस तरह की प्रेस सेंसरशिप शायद इसीलिए लगाई गई क्योंकि मीडिया सही तथ्यों को उजागर कर रहा था। हैरत की बात यह है कि देश हित में कही गई बातों को ही राष्ट्रविरोधी करार दे दिया जाता है। इसे कतई जायज नहीं कहा जा सकता। 
हरतोष सिंह बल, वरिष्ठ पत्रकार 

‘कारवां’ पत्रिका के राजनीतिक संपादक बल को एक उपन्यास के लिए एसोसिएशन ऑफ अमरीकन पब्लिशर्स का अवार्ड भी मिला है।

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