देखा जाए तो राज्यों के खर्चों में दो अहम घटक होते हैं। पहला राजस्व व्यय और दूसरा पूंजीगत व्यय। राजस्व व्यय में प्रशासनिक व्यय, वेतन एवं पेंशन भुगतान शामिल होते हैं। राज्योंं द्वारा ऋणों पर चुकाया जाने वाला ब्याज भी राजस्व व्यय में शामिल होता है। जबकि पूंजीगत व्यय में सामाजिक एवं आर्थिक सेवाओं में किया गया खर्च शामिल होता है। ऐसे पूंजीगत व्यय से आधारभूत ढांचे का निर्माण भी होता है – मसलन, स्कूल, जलापूर्ति, सफाई व्यवस्था और अस्पताल। पिछले आठ साल के दौरान राज्यों ने पूंजीगत व्यय के मुकाबले राजस्व व्यय पर कहीं ज्यादा खर्च किया है।
दीर्घकालिक आंकड़ों का बारीकी से विश्लेषण किया जाए तो पता चलता है कि हाल के वर्षों में राज्यों के खुद का राजस्व एकत्र करने की क्षमता में तेजी से कमी आई है। वहीं केन्द्र अधिक से अधिक कर लगाने के बावजूद संसाधनों की राज्यों के साथ हिस्सेदारी कम कर रहा है। यही वजह है कि कर संग्रह का कोई फायदा राज्यों को होता नहीं दिख रहा। राज्यों द्वारा वर्ष 2018-19 के बजट में कुल मिलाकर सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी का लगभग ३4,000 करोड़ रुपये) का राजस्व अधिशेष था। यह करीब 0.2 फीसदी था। यह महत्वपूर्ण है, क्योंकि इसका मतलब है कि राज्यों ने अनुमान लगाया था कि वे अधिक आय अर्जित करेंगे, क्योंकि उन्हें अनुत्पादक व्यय पर खर्च करने की आवश्यकता होती है जैसे कि वेतन, पेंशन आदि। लेकिन वास्तव में उन्होंने जीडीपी का लगभग 0.1 प्रतिशत (1३,000 करोड़ रुपए का घाटा) राजस्व घाटा हासिल किया।
छोटे प्रदेश ही नहीं, बल्कि कई बड़े राज्य भी राजस्व घाटे की छाया से जूझ रहे हैं। महाराष्ट्र और तमिलनाडु जैसे बड़े राज्यों को राजस्व घाटा क्रमश: जीडीपी का 0.7 प्रतिशत और 0.8 प्रतिशत रहता है तो पंजाब और हरियाणा जैसे राज्यों को जीडीपी के 1.5 प्रतिशत से अधिक का राजस्व घाटा रहता है। ऐसे में वे अपने वित्तीय घाटे को जीएसडीपी का तीन फीसदी या इससे अधिक रखने को मजबूर होते हैं।
हो यह रहा है कि राज्य जो कर्ज ले रहे हैं वह भी उत्पादकता के लिहाज से आवंटित होने के बजाय अनुत्पादक खर्चों की ओर बढ़ रहा है। इतना जरूर है कि राज्य सामाजिक खर्चों पर ध्यान बढ़ा रहे हैं, पर उनका इस क्षेत्र में खर्चों का फोकस बदल रहा है। आवास एवं शहरी विकास जैसे खर्च अब स्वास्थ्य और शिक्षा का हिस्सा भी हड़प रहे हैं। राजस्व वसूली कम होने से चिंतित राज्यों में कई ने शराब बिक्री और स्टाम्प शुल्क आदि पर करों के अन्य स्रोतों की ओर रुख कर लिया है।
समग्र रूप से देखें, तो सामाजिक व्यय अब राज्यों के समग्र व्यय में एक बड़ा हिस्सा लेता है। पिछले एक दशक में, इसकी हिस्सेदारी 41 प्रतिशत से बढ़कर 44.6 प्रतिशत हो गई है। जीडीपी के हिस्से के रूप में, यह इस साल सकल घरेलू उत्पाद के 6.2 प्रतिशत से बढ़कर 8 प्रतिशत हो गया है। लेकिन जरूरत राज्य के बजट में इस्तेमाल की जाने वाली अकाउंटिंग की प्रथाओं में आमूलचूल परिवर्तन की है, खास तौर से केंद्र प्रायोजित योजनाओं (सीएसएस) के संबंध में। गौरतलब है कि सभी सीएसएस फंड अब राज्य बजट के माध्यम से रूट किए जाते हैं। परिणामस्वरूप, सभी राज्यों द्वारा सीएसएस खर्च 2016-17 में 50,000 करोड़ रुपए से बढ़कर 2019-20 (बजट अनुमान) में ३.8 ट्रिलियन रुपए हो गए। इससे पहले, सीएसएस फंड को केंद्र से सीधे कार्यान्वयन एजेंसी में स्थानांतरित कर दिया गया था, जिसे अब राज्य बजट खाते से अपने गैर-कर राजस्व के एक भाग के रूप में रखा गया है। इसने राज्य प्राप्तियों में गैर-कर राजस्व को 2016-17 में लगभग 5 ट्रिलियन रुपए से बढ़ाकर 2019-20 (बजट अनुमान) में 9 ट्रिलियन रुपए तक किया है।
राज्यों द्वारा 2018-19 के लिए प्रदान किए गए सभी संशोधित अनुमान हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि अनंतिम खातों द्वारा व्यक्त वास्तविक संग्रह/ खर्च संशोधित अनुमानों से काफी कम हैं। राज्यों की राजस्व प्राप्तियों को बड़े पैमाने पर 2.4 ट्रिलियन या भारत के जीडीपी के एक प्रतिशत से अधिक (संशोधित अनुमान में) घटाया गया है। अर्थव्यवस्था के हिस्से के रूप में बेहतर अनुमानों पर विचार किया जाए तो 2018-19 में प्राप्तियों और व्यय दोनों में भारी कटौती की गई है।
इसका अर्थ है कि संशोधित अनुमानों द्वारा व्यक्त की गई 10 प्रतिशत आवश्यक वृद्धि के मुकाबले राजस्व प्राप्तियों में आवश्यक वृद्धि अब 20 प्रतिशत है। यह 20 फीसदी की बढ़ोतरी वर्ष 2019-20 के पहले तीन महीनों में प्राप्त मामूली आर्थिक वृद्धि 8 प्रतिशत की तुलना में कहीं अधिक है। रेटिंग एजेंसी इक्रा की एक हालिया रिपोर्ट ने भी खासकर एसजीएसटी के मद्देनजर इस बिंदु को रेखांकित किया है। इक्रा के विश्लेषण से पता चलता है कि वास्तविक स्थिति संशोधित अनुमानों की तुलना में 6-7 प्रतिशत कम थी। यह संभव है कि 2018-19 के संशोधित अनुमान में कुछ राज्यों द्वारा इंगित किए गए एसजीएसटी संग्रह और जीएसटी क्षतिपूर्ति को बाद में संशोधित करते हुए कम किया जा सके।
राज्यों के राजस्व को माल और सेवा कर (जीएसटी), बिक्रीकर और केंद्रीय करों में हिस्सेदारी और लाभांश, बिजली उपयोगकर्ता शुल्क और केंद्र से अनुदान जैसे गैर-कर स्रोतों से होने वाली आय के रूप में मोटे तौर पर विभाजित किया जा सकता है। राज्यों के अपने कर राजस्व का एक बड़ा हिस्सा जीएसटी के तहत रखा गया था, जिसे अब जीएसटी परिषद द्वारा नियंत्रित किया जाता है। इसके अध्यक्ष केंद्रीय वित्त मंत्री हैं। अब राज्यों द्वारा वसूले जाने वाले अनेक अप्रत्यक्ष करों का स्थान जीएसटी ने ले लिया है। पहले जहां ये सभी टैक्स राज्यों के नियंत्रण में थे, जीएसटी दरों को अब जीएसटी परिषद द्वारा तय किया जाता है। इसका अर्थ यह है कि वस्तु एवं सेवाओं पर टैक्स की दरों के संबंध में फैसले लेने के लिए राज्यों के पास सीमित लचीलापन है। इसलिए राजस्व के लिए जीएसटी प्राप्तियों पर अधिक निर्भरता से राज्यों की स्वायत्तता कम होती है, चूंकि ये प्राप्तियां जीएसटी परिषद द्वारा निर्धारित की गई टैक्स दरों पर निर्भर करती हैं।
किसानों का कर्ज माफ करने से राज्यों पर उनके कर्ज का दबाव आ जाता है। सामान्य तौर पर राज्यों द्वारा गारंटी देने पर बैंक और सहकारी संघ लाभार्थी किसानों के बकाया कर्ज को माफ कर देते हैं। फिर अगले कुछ वर्षों में चरणबद्ध तरीके से बजट में कर्ज माफी की योजना के लिए प्रावधान किया जाता है ताकि कर्ज माफी की राशि का पुनर्भुगतान किया जाए और बकाया कर्ज को समाप्त किया जा सके।
स्पष्ट है राज्यों के पास खर्च करने के लिए आमदनी और संसाधन कम हैं। दूसरा, वेतन भत्तों, पेंशन व अन्य मदों पर ही भारी खर्च हो जाता है। ऐसे में राज्यों को खुद के संसाधन तो जुटाने ही होंगे, ये भी ध्यान रखना होगा कि अनावश्यक खर्चों में कटौती की जाए। वैसे भी जब आर्थिक मंदी की चर्चा चहुंओर है, तब सरकारों को अर्थशास्त्र के सामान्य सिद्धांत पर चलना होगा। वह यह कि जब मंदी का दौर चल रहा हो, तो सरकारों को खूब खर्च कर मांग में इजाफा करना चाहिए। अब देखने वाली बात यह होगी कि केंद्र और राज्य दोनों वित्तीय स्थिति के खस्ता हालात के बावजूद मंदी से कैसे निपटें।
-पत्रिका रिसर्च टीम