scriptकुरीतियों का दंश | Stinger of the superstition | Patrika News

कुरीतियों का दंश

locationजयपुरPublished: Jul 23, 2019 03:28:12 pm

Submitted by:

dilip chaturvedi

सरकार को चाहिए कि ग्रामीण इलाकों का गहन अध्ययन करवा कर ऐसे कानून बनाए, जिससे कि वहां भय का वातावरण दूर हो।

superstition in india

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भारत विकासशील से विकसित देश की दौड़ में शामिल है। 70 साल से ज्यादा हो गए आजादी मिले। चांद पर उतरने की तैयारी, लेकिन रूढ़िवाद, जादू-टोना, चुड़ैल और डायन प्रथा से अभी तक निजात नहीं मिल पाई है। हर दो-चार महीनों में राजस्थान, मध्यप्रदेश, झारखंड, छत्तीसगढ़ और उत्तर प्रदेश के आदिवासी क्षेत्रों से जादू-टोना करने और डायन होने के आरोप में भीड़ द्वारा किसी महिला या तांत्रिक को पीट-पीट कर मारने की खबरें आती रहती हैं। ताजा घटना झारखंड के गुमला गांव की है, जहां ग्रामीणों ने चार वृद्ध आदिवासियों को छडिय़ों और धारदार हथियारों से मार डाला। इनमें दो महिलाएं थीं। सभी की उम्र 60 वर्ष से ज्यादा थी। पुलिस को ग्रामीणों ने बताया कि ये सभी जादू-टोना करते थे। भीड़ ने इन्हें घर से खींचकर बाहर निकाला और आंगनबाड़ी केन्द्र के सामने सरेआम पीट-पीट कर मार डाला। राज्य में सामाजिक कुरीति इस कदर हावी है कि 2001 से 2016 के बीच पन्द्रह सालों में ही यहां भीड़ के द्वारा 523 स्त्रियां मौत के घाट उतार दी गईं। अकेले 2013 में 54 लोग मारे गए थे। इस घटना के बाद भी पुलिस का कोई भी जिम्मेदार अधिकारी बयान देने को तैयार नहीं। सरेआम हुई घटना का कोई चश्मदीद नहीं। अशिक्षा और जनजागरण के अभाव में आदिवासी क्षेत्रों में झाड़-फूंक करने वालों का प्रभाव बढ़ा है।

राजस्थान की बात करें तो पिछले दिनों अस्पताल के आइसीयू तक में झाड़-फूंक करने वाले मृत व्यक्ति को जिंदा करने पहुंच गए। राजस्थान के बांसवाड़ा, डूंगरपुर व भीलवाड़ा, मध्यप्रदेश के मंदसौर और छत्तीसगढ़ के बस्तर व जगदलपुर जिलों में जादू-टोना के साथ छोटे बच्चों को बीमारी से बचाने के लिए ‘डाम’ लगाने की प्रथा अभी भी जारी है। इसके तहत मासूमों को झाड़-फूंक करने वाले गर्म सलाखों से दाग देते हैं। कई बच्चों की इस प्रक्रिया में मृत्यु तक हो जाती है। शारदा एक्ट के बावजूद हर वर्ष आखातीज पर सैकड़ों मासूमों को बाल विवाह के बंधन में बांध दिया जाता है। इन सब घटनाओं को देखकर लगता है कि सरकारें कितने भी विकास के दावे करें, जब तक भीड़ की हिंसा और कुरीतियों से मुक्ति नहीं मिलती, हम सभ्य समाज कहलाने के हकदार नहीं हैं। ग्रामीण विकास पर हर बजट में हजारों करोड़ का प्रावधान होता है। लेकिन अभी तक पिछड़े इलाकों में सामान्य शिक्षा, चिकित्सा, पेय जल और बिजली जैसी मूलभूत सुविधाएं भी नहीं पहुंच पाई हैं।

दावे हम भले ही कितने भी कर लें, वास्तविकता इन क्षेत्रों में जाने पर ही दिखाई देती है। तभी तो भोले-भाले आदिवासी सामान्य बुखार को भी दैवीय प्रकोप समझ बैठते हैं और टोना-टोटका और झाड़-फूंक करने वालों के चंगुल में फंस जाते हैं। इनके विफल रहने पर ही फिर भीड़ का गुस्सा फूटता है और लोगों की जान पर बन आती है। सरकार को चाहिए कि ग्रामीण इलाकों का गहन अध्ययन करवा कर ऐसे कानून बनाए, जिससे कि ऐसे इलाकों में भय का वातावरण दूर हो। लोगों में शिक्षा, जागरूकता की अलख जगाई जाए तथा उन्हें चिकित्सा सुविधाएं सुलभ हों, जिससे कि कुरीतियां और अंधविश्वास दूर हो। जब तक देश में ‘डायन’ या ‘ओझा’ के मामले आते रहेंगे, हम अपने को विकसित सभ्य समाज कैसे कह सकते हैं?

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