दावे हम भले ही कितने भी कर लें, वास्तविकता इन क्षेत्रों में जाने पर ही दिखाई देती है। तभी तो भोले-भाले आदिवासी सामान्य बुखार को भी दैवीय प्रकोप समझ बैठते हैं और टोना-टोटका और झाड़-फूंक करने वालों के चंगुल में फंस जाते हैं। इनके विफल रहने पर ही फिर भीड़ का गुस्सा फूटता है और लोगों की जान पर बन आती है। सरकार को चाहिए कि ग्रामीण इलाकों का गहन अध्ययन करवा कर ऐसे कानून बनाए, जिससे कि ऐसे इलाकों में भय का वातावरण दूर हो। लोगों में शिक्षा, जागरूकता की अलख जगाई जाए तथा उन्हें चिकित्सा सुविधाएं सुलभ हों, जिससे कि कुरीतियां और अंधविश्वास दूर हो। जब तक देश में ‘डायन’ या ‘ओझा’ के मामले आते रहेंगे, हम अपने को विकसित सभ्य समाज कैसे कह सकते हैं?