मुझे लगता है कि यह कथा हमें यह बताने के लिए लिखी गई कि मनुष्य किसी भी दुर्गुण से पूर्णत: मुक्त नहीं हो सकता। उसे स्वयं को किसी भी विषय में पूर्ण नहीं समझना चाहिए। नारद ने इतना कठोर तप किया, फिर भी वह अहंकार से मुक्त नहीं हो सके। फिर एक सामान्य मनुष्य कैसे मुक्त हो सकेगा? मुझे लगता है दुर्गुणों से मुक्ति की ओर निरंतर बढ़ते रहने का प्रयास ही मानवता है। मनुष्य मात्र यही कर सकता है। हम दुर्गुणों से पूर्णत: मुक्त नहीं हो सकते, हमें बस मुक्ति के निकट जाने का प्रयत्न करते रहना चाहिए। आप भगवान शिव की तपस्या और देवर्षि नारद की तपस्या की तुलना कीजिए। नारद की तपस्या कामदेव भंग नहीं कर सके, पर शिव ने कामदेव को भस्म ही कर दिया। कामदेव का भस्म होना केवल एक शरीर का भस्म होना नहीं था। इसका अर्थ है अपने अंदर से काम की भावना का नाश करना। मनुष्य यदि ऐसा कर पाता है तो वह शिव के निकट चला जाता है। नारद यह नहीं कर सके। तपस्या के कुछ ही दिन बाद वह भगवान विष्णु की माया में फंस कर एक राजकन्या से विवाह करने के लिए व्यग्र हो गए थे और उन्होंने भगवान विष्णु से स्वयं को उनके जैसा रूपवान बना देने की याचना की थी। नारद तप के बाद भी कहां मुक्त हो सके काम से? फिर कामदेव कहां पराजित हुए उनसे?
आगे की कथा यह है कि भगवान विष्णु की माया से नारद का मुख बंदर जैसा हो गया और स्वयंवर में राजकन्या ने उनको घृणा की दृष्टि से देखा। बाद में अपना स्वरूप देखने पर वह अत्यंत क्रोधित हुए और उन्होंने क्रोध में भगवान विष्णु को ही शाप दे डाला। क्रोध का सबसे बड़ा दुष्प्रभाव यही है कि उसके आवेग में मनुष्य केवल अनैतिक कर्म ही करता है। नहीं तो नारद क्या अपने आराध्य को शाप देने जैसा दुस्साहसी कृत्य करते? कभी नहीं। हम क्रोध से भी पूर्णत: मुक्त नहीं हो सकते, पर हमें क्रोध को कम करने का प्रयत्न अवश्य करते रहना चाहिए। यही मनुष्य की वास्तविक उन्नति है।
(लेखक पौराणिक पात्रों और कथानको पर लेखन करते हैं)