केंद्र से लेकर राज्यों में पार्टी का संगठन तो कमजोर है ही, गुटबाजी भी चरम पर है। सवाल उठता है कि क्या प्रशांत किशोर अकेले ही पार्टी की नैया पार लगा पाएंगे? दो माह पहले उत्तरप्रदेश और पंजाब में भी पर्दे के पीछे से उन्होंने पार्टी की चुनावी रणनीति में सहयोग दिया था। नतीजे सबके सामने हैं। कांग्रेस आज जिस हालत में पहुंच गई है वहां सिर्फ कागजी रणनीति के भरोसे अधिक उम्मीद नहीं की जा सकती। उत्तरप्रदेश, महाराष्ट्र, प. बंगाल और बिहार जैसे राज्यों में पार्टी लंबे समय से मुख्य मुकाबले में ही नहीं रह गई है। इन चारों राज्यों में लोकसभा की 210 सीटें आती हैं। कांग्रेस को लेकर एक सवाल और उठता रहता है कि पार्टी की ये हालत एक दिन में नहीं हुई। पिछले आठ साल से पार्टी हिचकोले खाती ही चल रही है। न कभी हार के कारणों की समीक्षा हुई और न ही जनाधार वाले नेताओं को आगे लाने के प्रयास हुए। 2017 में सोनिया गांधी के स्थान पर जब राहुल गांधी पार्टी अध्यक्ष बने थे तो लगा था कि पार्टी युवाओं का भरोसा जीतकर भाजपा को चुनौती देने में शायद कामयाब हो। लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव में फिर करारी पराजय के बाद राहुल ने अध्यक्ष पद छोड़ दिया। तब से अंतरिम अध्यक्ष के भरोसे चल रही पार्टी को एक के बाद एक हार का सामना करना पड़ रहा है। बीते सवा दो साल में हुए 15 विधानसभा चुनावों में पार्टी एक भी जगह अपनी सरकार बनाने में सफल नहीं हो पाई। अनेक नेता पार्टी छोड़ चुके हैं। पार्टी के भीतर असंतुष्ट गुट भी नेतृत्व पर दबाव बनाने लगा है।
प्रशांत किशोर पहले भाजपा, फिर जद(यू) और ममता बनर्जी के लिए चुनावी रणनीति बना चुके हैं। वे पार्टी में शामिल भी हुए तो विचारधारा के आधार पर नहीं, रणनीतिकार के रूप में होंगे। धड़ों में बंटी कांग्रेस को एकजुट करना और संगठन में जान फूंकना उनकी पहली प्राथमिकता होगी। किशोर अपनी नई भूमिका में सफल होंगे या नहीं, ये तो भविष्य बताएगा लेकिन अच्छी बात ये है कि कांग्रेस 2024 के लोकसभा चुनाव के लिए अपने आपको तैयार करती तो नजर आ रही है।