छत्तीसगढ़ की अंतागढ़ विधानसभा सीट के पिछले वर्ष हुए उपचुनाव के दौरान ऐन वक्त चुनाव मैदान से हटने वाले कांग्रेस प्रत्याशी मंतूराम को लेकर ताजा खुलासे ने एक बार फिर भारतीय राजनीति और राजनेताओं के चेहरे पर कालिख पोत दी है। बेशक राजनीति में अच्छे लोग भी हैं लेकिन उनकी संख्या इतनी कम है कि वे ‘बेचारे’ ही नजर आते हैं।
भले इस प्रकरण से जुड़े तमाम पक्ष, चाहे वह सत्ता पक्ष हो या विपक्ष का एक धड़ा, खरीददार हो या बिकवाल, सब मना करें कि ऐसा कुछ नही हुआ लेकिन लगता यही है कि दाल में कुछ काला नहीं, सारी दाल ही काली है। अब प्रश्न यह है कि इसका सच कैसे सामने आएगा? कौन जांच करेगा और कौन स्वयं को जांच के दायरे में लाने की पेशकश करेगा? अब सतयुग तो है नहीं और कलयुग में किसी से भी सच बताने या उसे सामने लाने में सहयोग की उम्मीद करना बेकार है।
पाठकों को याद होगा, जब यह प्रकरण हुआ तब भी पत्रिका ने निरंतर इस प्रकरण से जुड़े तमाम पक्षों को लेकर सवाल उठाए थे। धड़ेबंदी किसी भी परिवार और पार्टी में नहीं होनी चाहिए लेकिन यहां लगता है कि धड़ेबंदी की बुराई ने ही एक अच्छा काम किया है। कांग्रेस के कुछ नेताओं ने सारे मामले में दूध का दूध और पानी का पानी करने के लिए सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में विशेष जांच दल गठित करने की मांग की है। ऐसे दल कैसे काम करते हैं इस देश में किसी से छिपा नहीं है। उनकी अवधि द्रौपदी के चीर सी लम्बी होती जाती है और रिपोर्ट आ भी जाती है तो उस पर कार्रवाई बीरबल की खिचड़ी सी बन जाती है। सच यह है कि ऐसे मामलों में सच को कोई सामने नहीं लाना चाहता।
तब क्या जनता यह मानकर चले कि चाहे केन्द्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली पर लग रहे डीडीसीए के आरोप हों या दिल्ली सरकार का परिवहन घोटाला। व्यापमं हो या अन्य राज्यों के कई मुख्यमंत्रियों पर लग रहे भ्रष्टाचार के बड़े-बड़े आरोप, किसी का भी सच सामने नहीं आएगा? क्या इन नेताओं के दामन पर ये आरोप यूं ही लगे रहेंगे या कोई सरकार ऐसी हिम्मत दिखाएगी कि किसी पाक-साफ व्यक्ति से इनकी जांच करवाए?
अंतागढ़ उपचुनाव से ऐन वक्त हटे कांग्रेस प्रत्याशी सहित अन्य के मध्य लेन-देन की बातचीत के इन खुलासों ने एक बार फिर देश में एक ऐसे मजबूत लोकपाल की आवश्यकता प्रतिपादित की है जो वाकई में पंच परमेश्वर हो। जिसकी निष्ठा और ईमानदारी पर इंसान तो क्या भगवान भी अंगुली नहीं उठा सके।
ऐसे ही लोग उस लोकपाल को खोजने वाली समिति में हों। राजनेता, चाहे सत्ता पक्ष के हों या विपक्ष के, उन्हें उस समिति से पूरी तरह दूर रखा जाए। वही लोकपाल राज्यों के लोकायुक्त के लिए अपनी प्रतिमूर्तियां तैयार करे। और इनका काम शिकायत आने पर जांच शुरू करने का नहीं बल्कि देश और समाज में 365 दिन के लिए अपने जासूस छोड़कर अपनी ओर से जांच शुरू करने का हो। राजनेताओं को भी इसमें आगे आकर सहयोग करना चाहिए। तभी उनकी ‘चदरिया उजली रहेगी। नहीं तो एक दिन ऐसा आएगा जब जनता खराब को ही नहीं, अच्छों को भी खराब मानने लगेगी और सभी से सड़कों पर निपटेगी।