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सुभाषचंद्र बोस:  अब तक देश को नहीं बताई जा रही हकीकत

Published: Apr 04, 2015 05:04:00 am

Submitted by:

Kamlesh Sharma

बौखलाए अंग्रेजों ने अपनी जीत का भौंडा प्रदर्शन करने के लिए आईएनए के तीन अफसरों पर जिनमें एक हिंदू, एक सिख और एक मुस्लिम था, लाल किले में अभियोग चलाया।

बौखलाए अंग्रेजों ने अपनी जीत का भौंडा प्रदर्शन करने के लिए आईएनए के तीन अफसरों पर जिनमें एक हिंदू, एक सिख और एक मुस्लिम था, लाल किले में अभियोग चलाया। इसने राष्ट्रवादी भावनाओं की सुनामी पैदा कर दी। रॉयल इंडियन नेवी तथा ब्रिटिश भारतीय सेना की कुछ इकाइयों में बगावत हो गई।

मेजर जनरल (डॉ) जी डी बक्शी
एसएम, वीएसएम (सेवानिवृत्त)
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम ने देश को ऐसे अनेक महान नेता दिए जिनके पास व्यापक दृष्टि थी। आज अगर पीछे मुडकर देखें तो उनमें सबसे बड़ा कद नेताजी सुभाषचंद्र बोस का नजर आता है। 

इसमें कोई संदेह नहीं कि महात्मा गंाधी ने ही भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को जन आंदोलनकारी चरित्र दिया था और भारत की व्यापक किसान आबादी को स्वतंत्रता संग्राम से जोडने में सफलता प्राप्त की थी।

वे गांधी ही थे जिन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन को भारतीय बनाया और उसे भारत के मुख्य शहरों में वकील समाज की अशक्त बहसबाजी के स्तर से उपर उठाया। पहले ये वकील ब्रिटिश सरकार के सामने केवल याचिकाएं ही दिया करता था। लेकिन 1919 के जालियांवाला हत्याकांड के बाद तो स्थितियों का कोई स्पष्टीकरण ही नहीं बचा। 

तब गांधी जी ने अंग्रेजों के साथ असहयोग का लक्ष्य सामने रखकर पूर्ण स्वराज्य और जन आंदोलन की जरूरत को रेखांकित किया। गांधी और बोस में स्वतंत्रता संग्राम की मूल रणनीतिक दिशा तथा उसे प्राप्त करने के साधन और पद्धितियों पर भारी मतभिन्नता थी। 

यह बहस उस समय की सबसे निर्णायक बहसों में थी जिसने हमारी उस राजनीतिक व्यवस्था के स्वरूप को भी प्रभावित किया जो कि स्वतंत्रता के बाद उभरी। आगामी दिनों में भारतीय राज्य के नरम बनाम कठोर रुझान के मूल में यही बहस है। इस बहस को आज फिर से खोलने की जरूरत है।

निष्ठा पर सवाल
महात्मा गंाधी ने स्वतंत्रता संग्राम के लिए शांतिपूर्ण व अहिंसक मार्ग को अपनाया था जिसके केंद्र में मूल विचार अहिंसा थी। जबकि बोस का मानना था कि सिर्फ व्यापक हिंसा ही अंग्रेजों को देश छोडऩे के लिए मजबूर कर सकती है। 

भारत में ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के जारी रहने के पीछे सबसे बड़ा कारण था भारतीय सैनिकों की ब्रिटिश राज के प्रति वफादारी। एक बार यह समाप्त हो जाए तो फिर ब्रिटिश राज भारत में एक दिन भी कायम नही रह सकता था।

इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए बोस वैश्विक शक्तियों की सहायता लेना चाहते थे जिससे औपनिवेशिक साम्राज्य पर सैनिक दबाव बनाया जा सके और ब्रिटिश राज को उखाड फेंका जा सके। 

आज उपलब्ध ऐतिहासिक अंत:दृष्टि ने यह साबित कर दिया है कि यह बोस की वृहत रणनीतिक सोच व बोस और उनकी आईएनए का ही साया था जिसने रॉयल भारतीय सेना तथा भारतीय सेना की इकाइयों में बगावत को प्रेरित किया था, जिससे अंग्रेज देश छोडऩे को विवश हुए। 

आज उस ऐतिहासिक बहस को पुन: समझना मार्गदर्शक हो सकता है, क्योंकि जिस व्यक्ति के प्रयास वास्तविक रूप से भारत को स्वतंत्रता दिलाने के केंद्र में रहे, उस व्यक्ति की समझ और निष्ठा पर सवाल उठाए जा रहे हैं। 

सावधानीपूर्वक निर्मित की गई लोकप्रिय समझ के विपरीत हकीकत यह है कि अहिंसा स्वतंत्रता दिलाने में असफल हो चुकी थी। इसको काफी कुछ बांध कर रखा गया था और दूसरे विश्व युद्ध के बाद तो यह समाप्त सा हो चुका था। 

कांग्रेस ने 1942 में भारत छोडो आंदोलन छेड़ा था। अंग्रेजों ने इसका जवाब पूरे कांग्रेस नेतृत्व को जेल में डालकर दिया था। युद्ध के समय लागू डेकोनियन सेंसरशिप ने आंदोलन को प्रेस कवरेज की ऑक्सीजन से वंचित कर दिया था और आंदोलन को जरूरी सफलता नहीं मिली थी। 1944-45 तक तो यह पूरी तरह खत्म हो चुका था।

अहिंसा की भूमिका ‘न्यूनतमÓ 
फिर वह क्या था जिस कारण अंग्रेज दो साल बाद ही देश को जल्दबाजी में छोड़कर चले गए। जस्टिस पीवी चक्रवर्ती जो प. बंगाल के प्रथम राज्यपाल थे, ने यह सवाल पूर्व ब्रिटिश प्रधानमंत्री क्लीमेंट एटली के सामने (1956) रखा था। 

एटली जो भारतीय स्वतंत्रता के विषय में सर्वाधिक विवादास्पद निर्णयकर्ता समझे जाते हैं व अपने जवाब में अत्यंत स्पष्टवादी थे, उन्होंने कहा यह सुभाष चंद्र बोस और उनकी आजाद हिंद सेना थी।

राज्यपाल ने यह भी पूछा कि इस निर्णय को प्रभावित करने में महात्मा गंाधी के अहिंसक संघर्ष की क्या भूमिका थी। यह सुनते ही एटली के चेहरे पर एक व्यंग्यात्मक मुस्कराहट आई और उन्होंने चबा-चबा कर एक ही शब्द कहा ‘न्यूनतमÓ।

 बोस पहले अफगानिस्तान और फिर वहां से इटली निकल गए थे। वहां से वे जर्मनी चले गए जहां उन्होंने युद्ध कैदियों को मिलाकर सैन्य दल की स्थापना की। उन्होंने हिटलर को भारत पर आक्रमण करने के लिए मनाने की कोशिश की। 

जब यह कारगर नहीं हुआ तो निडर बोस एक जर्मन पनडुब्बी यू-180 में बैठकर अटलंाटिक पार कर कैप ऑफ गुड होप होते हुए मेडागास्कर पहुंचे। वहां से वे एक जापानी पनडुब्बी आई- 28 में बैठकर जापान पहुंचे। उन्होंने सिंगापुर में एक स्वतंत्र भारत सरकार की घोषणा की तथा ग्रेट ब्रिटेन के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया। 

उन्होंने 60,000 सैनिकों के साथ तीन बलों की इकाइयों में बंटी एक भारतीय आजाद हिंद सेना खडी की तथा जापान को कोहिमा तथा इंफाल होते हुए भारत पर आक्रमण करने के लिए मना लिया। 

आईएनए की लगभग दो टुकडिय़ों ने इस आक्रमण में भाग लिया। लगभग 26,000 आईएनए जवानों ने इस आक्रमण में अपनी जान गंवा दी। आईएनए ने ब्रिटिश साम्राज्य को हिलाकर रख दिया। 

ब्रिटिश सरकार भारतीय सेना में किसी व्यापक विद्रोह की आशंका से भयभीत हो गई। दुर्भाग्य से आईएनए काफी देर से पहुंची थी। अब तक युद्ध पलटी खा चुका था। हिरोशिमा और नागासकी पर परमाणु बम विस्फोट के बाद जापान ने आत्मसमर्पण कर दिया। 

हताश हुए बिना बोस रूस से संपर्क साधने के लिए एक जापानी बम वाहक विमान में मंचूरिया चले गए और उनकी सहायता से भारत का स्वतंत्रता संग्राम जारी रखा। एक विमान के नष्ट होने की खबरें आईं पर बोस की दंतकथाएं अब तक सुनी जाती हैं।

अंग्रेजों ने डर से छोड़ा देश
बौखलाए अंग्रेजों ने अपनी जीत का भौंडा प्रदर्शन करने के लिए आईएनए के तीन अफसरों पर जिनमें एक हिंदू, एक सिख और एक मुस्लिम था, लाल किले में अभियोग चलाया। 

इसने राष्ट्रवादी भावनाओं की सुनामी पैदा कर दी। रॉयल इंडियन नेवी तथा ब्रिटिश भारतीय सेना की कुछ इकाइयों में बगावत हो गई। नेवी में बगावत विशेष रूप से चिंताजनक थी। इसमें 72 जहाजों के 20 हजार सैनिकों ने भाग लिया था। 

युद्ध के बाद लगभग 25 लाख ऐसे भारतीय सैनिकों को, जो कि लड़ाई से मजबूत हो चुके थे, को फौज की सेवा से हटा दिया गया था। वे गुस्से में थे। इंटेलीजेंस की रिपोर्ट बहुत चिंताजनक थीं। इससे हिल चुके अंग्रेजों ने दीवार पर लिखी इबारत पढऩे में देर नहीं लगाई और सम्मान के साथ देश छोडऩे में ही भलाई समझी। 

सैन्य शक्ति को नहीं दिया महत्व
 नेहरू ने जानबूझकर इस झूठे कथानक को गढ़ा कि भारत ने मात्र अहिंसा की सौम्य ताकत के बल पर ही आजादी हासिल कर ली थी। इसके परिणामस्वरूप भारत ने सैनिक शक्ति को संसाधनों से वंचित रखा तथा उसे जरूरी महत्व नहीं दिया। 

इसी कारण चीन ने भारत के सौम्य शक्ति के गुब्बारे को 1962 में फोड़ दिया और भारत को एक अत्यंत अपमानजनक हार का सामना करना पड़ा। इस हार ने भारतीय विदेश और सुरक्षा नीति में यथार्थवाद का एक दौर का आरंभ किया जिसका चरमोत्कर्ष बांग्लादेश युद्ध में हमारी शानदार जीत में हुआ। 

1857 के विद्रोह के बाद, अंग्रेजों ने भारत के विचार को नकारने की कोशिश की थी। 1872 से ही उन्होंने भारत में जाति आधारित जनगणना शुरू कर दी थी। इसके बाद उन्होंने मुस्लिम, ईसाई, सिख तथा दलित के लिए पृथक निर्वाचक-समूह बनाए। इस सबका उद्देश्य एक ही था कि भारत के विचार को इस कदर तोड़ देना, बिखेर देना कि उसमें कोई सुधार ही संभव न हो। 

आज उपराष्ट्रीय, नृजातीय, सांस्कृतिक तथा पंथ आधारित पहचानों के कई समर्थक भारत की समग्र पहचान को नष्ट करने के उत्सव में व्यस्त हैं। हमें इस समय बोस, उनकी आजाद हिंद सेना तथा अखिल भारतीय पहचान को रेखांकित करने वाले राष्ट्रीय अभियान को याद करना चाहिए। 

जो भी खबरें छन-छन कर आ रही हैं वो यही कहती हैं कि बोस उस मंचूरिया से भाग निकलने में सफल हो गए थे, जहां उन्होंने भारत की आजादी के लिए रूसी सेनाओं से सोवियत संघ की सहायता मांगने के लिए संपर्क साधा था। 

स्टालिन तो यही मानते थे कि नेताजी जापानी सेना में शामिल हो गए थे और उसने उन्हें गिरफ्तार करवा दिया। वहां से नेताजी साइबेरिया की याकुत्सक जेल-कोठरी क्रमांक 45 में भेज दिए गऐ, जहां उन्हें प्रताडनाएं दी गई थीं। 

ब्रिटिश इंटेलीजेंस को बोस के बारे में पता चल गया था उन्होंने रूस को बोस को खत्म करने के लिए राजी कर लिया था, क्योंकि अगर वे भारत आ जाते तो फिर नेहरू का शासन चलाना संभव नहीं रह जाता। इसलिए स्टालिन ने वैसा ही किया और नेताजी को एक प्लास्टिक बैग की सहायता से गला घोंट कर मार दिया गया।

नए सिरे से समझना होगा इतिहास
स्तब्ध करने वाला सवाल जो अभी भी अुनत्तरित रहता है, वह यह कि क्या नेहरू और भारत सरकार को इस सबकी जानकारी थी, और क्या बोस के साथ जो हुआ उसमें सरकार का गुपचुप सहयोग था? 

भारत की वर्तमान सरकार के सामने, नेहरू सरकार के समय हुई गलतियों को छिपाने की क्या मजबूरी है? अब न तो स्टालिन हैं और न ही पुराना सोवियत संघ। 

इसलिए बोस संबंधी विवाद के कारण रूस से भारत के संबंध खराब होंगे ऐसा मानने का कोई कारण नहीं है। फिर सरकार क्यों अब भी बोस संबंधी फाइलों को ‘डिक्लासीफाईÓ कर सार्वजनिक करने से कतरा रही है। 

इस सच का हम सबके भविष्य से गहरा संबंध है। स्वतंत्रता के बाद देश में जो ‘वकील राजÓ शुरू हुआ उसने गांधी को हाशिए पर ढकेल दिया और बोस की यादों को भी दफना दिया। 

पाकिस्तान के विपरीत भारत में आजाद हिंद सेना के जवानों को भारत में शामिल नहीं किया गया और 1970 के उत्तरार्ध तक उन्हें कोई युद्ध संबंधी पेंशन भी नहीं दी गई। अर्थात नेहरू के शासनतंत्र में आजाद हिंद सेनानियों से गद्दार की तरह व्यवहार किया गया। यह विचार हमें हमारे मूल प्रश्न की तरफ ले जाता है। 

जनहित में फैसलों की उम्मीद
शिवकुमार शर्मा, पूर्व न्यायाधीश
पिछले दिनों देश के उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की संख्या में वृद्धि हुई है। राजस्थान में उच्च न्यायालय के 32 न्यायाधीश हुआ करते थे, अब यह संख्या बढ़कर 50 हो गई है। रिक्त पदों को भरे जाने की चर्चा भी जोरों पर है। 

पर विचारणीय प्रश्न यह है कि क्या बढ़ाई जा रही संख्या के अनुपात में पर्याप्त न्यायकक्ष, न्यायाधीशों के निवास स्थान तथा अन्य न्याय व्यवस्था से जुड़ी हुई सुविधाएं उपलब्ध हैं?

इस प्रश्न पर गंभीरता से विचार करने के लिए सुप्रीम कोर्ट के शीर्षस्थ न्यायाधीश एवं देश के विभिन्न उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीश 3, 4 व 5 अप्रेल को देश की राजधानी में एकत्रित हो रहे हैं। इस सम्मेलन में न्यायपालिका की वित्तीय स्वायत्तता को दृष्टिगत रखते हुए नेशनल विजन डॉक्यूमेन्ट 2015-2020 का प्रारूप तैयार किया जाएगा।

इस प्रारूप में देश के जिला व उच्च न्यायालयों में मुकदमों के शीघ्र निस्तारण की प्रक्रिया तथा विजिलेन्स सेल को शक्ति देने के तरीकों का समावेश होगा। 

इस सम्मेलन की विशेषता यह है कि इसमें इस बार न्यायपालिका की समस्याओं की केवल चर्चा नहीं होगी बल्कि समस्याओं के हल खोजे जाएंगे। देश के 24 मुख्य न्यायाधीश तथा सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस व 2 वरिष्ठतम न्यायाधीश मिलकर इस निष्कर्ष पर पहुंचेंगे कि न्यायपालिका को वित्तीय रूप से कैसे समर्थ बनाया जाए।

कैसे किया जाना चाहिए
समय-समय पर न्यायपालिका की ओर से जो वक्तव्य दिए जाते रहे हैं, उनसे यही ध्वनि निकलती है कि सरकार की ओर से न्यायपालिका को अपेक्षित सहयोग नहीं मिल पा रहा है। सुप्रीम कोर्ट के एक वरिष्ठ न्यायाधीश ने कहा है कि हम सब जानते हैं कि क्या किया जाना चाहिए किन्तु इस पर विचार करते-करते तो काफी समय बीत चुका है। 

अब तो इस पर विचार किया जाए कि ‘कैसे किया जाना चाहिए?Ó चीफ जस्टिस एच. एल. दत्तू ने सभी मुख्य न्यायाधीशों को पहले से ही निर्देश जारी कर दिए हैं कि वे मीटिंग में भाग लेने से पहले ठीक तरह से होमवर्क कर लें और समाधान के साथ मीटिंग में उपस्थित हों ताकि न्यायपालिका को प्रभावी ढंग से एवं त्वरित न्याय देने में सहयोग मिल सके।

इस देश की जनता अब यह समझने लगी है कि जब भी सुप्रीम कोर्ट में नया मुख्य न्यायाधीश कार्यभार सम्भालता है, न्यायपालिका में हलचल तेज हो जाती हैं। ‘त्वरित न्यायÓ का मुहावरा उछलता है। 

भ्रष्टाचार का कैन्सर
महिलाओं, पिछड़े वर्ग, सीनियर सिटीजंस, किशोरों, अनुसूचित जाति जनजाति व अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा करने और उनसे जुड़े मुकदमों के शीघ्र निस्तारण के वादे किए जाते हैं। 

पर मुकदमों का ढेर बढ़ता ही जाता है। भ्रष्टाचार एक कैन्सर की तरह न्यायपालिका की धमनियों व शिराओं में भी प्रवेश कर गया है। पहले न्यायाधीशों के बारे में दबी जुबां से चर्चा की जाती थी अब तो सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों की ईमानदारी पर प्रश्नचिह्न लगाते हुए सुप्रीम कोर्ट में ही शपथपत्र प्रस्तुत किए जा रहे हैं। 

सुप्रीम कोर्ट के वकील प्रशान्त भूषण के विरुद्ध विचाराधीन एक अवमानना याचिका में वरिष्ठ अधिवक्ता शान्तिभूषण ने सुप्रीम कोर्ट के कई पूर्व न्यायाधीशों पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाकर शपथपत्र प्रस्तुत किया है। उच्च न्यायालयों के विजिलेन्स सेल न्यायाधीशों के विरुद्ध प्रस्तुत किए गए शिकायती पत्रों से भरे पड़े हैं।

इन शिकायती पत्रों का निस्तारण होने में लम्बा समय लगता है। राष्ट्रीय न्यायिक आयोग पर राष्ट्रपति की मुहर लग चुकी है पर अभी तक उसका विधिवत गठन नहीं हो पाया है। शायद सरकार स्वयं इस गठन में ढिलाई बरत रही है। 

कॉलेजियम सिस्टम अभी भी प्रचलित है। धड़ल्ले से न्यायाधीशों की नियुक्तियां हो रही हैं। जब भी दिल्ली में कोई सम्मेलन होता है, मुझे नजीर बनारसी की ये पंक्तियां याद आती हैं-

कौम के गम में डिनर खाते हैं 
हुक्काम के साथ
रंज लीडर तो बहुत हैं मगर 
आराम के साथ।

उम्मीद की जानी चाहिए कि अप्रेल 2015 के प्रथम सप्ताह में हो रहे न्यायाधीशों के सम्मेलन में जनहित के कई फैसले लिए जाएंगे और ये फैसले केवल फाइलों में ही बन्द नहीं रहेंगे अपितु इन्हें क्रियान्वित भी किया जाएगा। इन निर्णयों से विचाराधीन मुकदमों की संख्या में कमी आएगी और न्यायपालिका में पांव पसार रहे भ्रष्टाचार पर अंकुश लग सकेगा।
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