राजनीतिक दलों में आंतरिक असंतोष अपनी जगह है। चिंता इस बात की है कि दलबदल कानून से बचाव की ऐसी गलियां तलाश ली गई हैं, जिससे किसी भी निर्वाचित सरकार को पल भर में अस्थिर किया जा सकता है। ऐसा लगता है कि मात्र सत्ता पर काबिज रहना या सत्ता हथियाने का जतन करते रहना ही राजनीतिक दलों का मकसद रह गया है। आजादी के तत्काल बाद इक्का-दुक्का सांसद-विधायक ही दल बदलते थे। वे भी अपने दल की नीतियों या नेताओं से असंतुष्ट होकर। बाद में दलबदल के माध्यम से सरकारें बदलने का दौर बढ़ा, तो रोकथाम के लिए कानून लाया गया। इसके बावजूद समूह में इस्तीफों के माध्यम से सरकारें बनने-गिराने का दौर शुरू होने लगा, तो दल विभाजन के लिए न्यूनतम संख्या बल की शर्त रख दी गई। अंकुश लगता देख पिछले सालों में तो जनप्रतिनिधियों से सीटें खाली कराने का नया खेल शुरू हो गया। यह बात सही है कि कोई भी सरकार अल्पमत में आ जाए, तो वह सत्ता में रहने का अधिकार खो देती है। लेकिन पहले गोवा, मणिपुर और कर्नाटक और अब मध्यप्रदेश के बाद पुडुचेरी में सत्ता के लिए होने वाली जोड़-तोड़ से राजनीति का विद्रूप चेहरा ही सामने आता है। हमारे लोकतंत्र में यह विसंगति ही है कि चुनाव पूर्व गठबंधन को भी नकारते हुए राजनीतिक दल सत्ता की खातिर पाला बदलने में देर नहीं लगाते। महाराष्ट्र इसका उदाहरण है।
बड़ी चिंता यह कि सत्तारुढ़ पार्टियों को सियासी शिकस्त देने का प्रयास उनके अपने भी करते हैं। राजस्थान भी ऐसे प्रयासों से अछूता नहीं रहा है। सत्ता की खातिर बेमेल गठजोड़ होने लगे हैं। चुनाव सिर पर हों या सरकारें बनी ही हों, तख्तापलट के ऐसे प्रयासों को रोकने के लिए भी पुख्ता व्यवस्था करनी होगी। अन्यथा सत्ता पाने के लिए धनबल और दूसरे प्रलोभन देने के आरोपों को खारिज करना आसान नहीं होगा।