जब यह मामला सर्वोच्च न्यायालय में आया और जिस तरह उसकी बैंच बनी, उस पर तो सर्वोच्च न्यायालय के चार वरिष्ठ न्यायाधीशों ने भी स्वयं मुख्य न्यायाधीश के समक्ष चिंता जाहिर की। सच में देखें तो उनके द्वारा उठाए गए सारे मुद्दे इसी के इर्द-गिर्द थे। सर्वोच्च न्यायालय ने इससे जुड़ी तमाम सुनवाई स्वयं करने का निर्णय किया है, यह बढिय़ा बात है लेकिन क्या अब यह परम्परा बनेगी कि भविष्य में राष्ट्रीय चिंता के सभी विषय सुप्रीम कोर्ट में ही सुने जाएंगे। आज की हालत में यह कई बार होता है कि एक ही मामले में सर्वोच्च और किसी उच्च न्यायालय में अलग-अलग सुनवाई होती हैं। स्थिति तब हास्यास्पद हो जाती है जब दोनों के निर्णय अलग-अलग हो जाते हैं। यदि यह भविष्य के लिए भी परम्परा बनती है तो ऐसी स्थिति से बचा जा सकता है। पर प्रश्न इन स्थापित परम्पराओं का दृढ़ता से पालन होने का है।
यह मौका है जब मुख्य न्यायाधीश सहित इन सभी न्यायाधीशों को मिलकर यह सुनिश्चित करना चाहिए कि पंच (न्यायाधीश) परमेश्वर की तरह होता है। उन्हें इस प्रकरण से उठे शक को हमेशा के लिए समाप्त कर देना चाहिए कि वहां भी सरकार के अलावा किसी व्यक्ति विशेष के प्रति पक्षपात की कोई जगह हो सकती है। यह सुनिश्चित रहना ही चाहिए कि न्याय के मंदिरों में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश जगमोहन लाल सिंहा जैसी शख्सियतें ही बैठती हैं जिन्होंने मौका आया तो तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के खिलाफ भी निर्णय दिया।