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अदालत ने समझी बेटियों की पीड़ा

Published: Oct 16, 2017 12:56:11 pm

महिलाओं के हित में यह बड़ा फैसला है कि 18 साल से कम उम्र की पत्नी के साथ शारीरिक संबंध बनाना बलात्कार के दायरे में आएगा

child marriage

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– आभा सिंह, विधि विशेषज्ञ

अनेक मामले सामने आए हैं जिनमें मुताह के नाम पर अरब के पचास से सत्तर साल आयु के शेख गरीब भारतीय मुस्लिम तबके की 12 से 15 साल की बच्चियों से निकाह कर अपने साथ ले जा रहे थे। ये साफ तौर पर मानव तस्करी का मामला है जिसे धर्म और रीति का नकाब ओढ़ा कर अंजाम दिया जा रहा है।
महिलाओं के हित में यह बड़ा फैसला है कि 18 साल से कम उम्र की पत्नी के साथ शारीरिक संबंध बनाना बलात्कार के दायरे में आएगा। नाबालिग पत्नी इसकी शिकायत एक साल के भीतर करती है तो पुलिस को तुरंत मामला दर्ज कर कार्रवाई करनी होगी। आरोपित पति पर पॉस्को एक्ट के तहत भी मामला बनेगा। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने इस फैसले में साफ कहा कि शारीरिक संबंधों के लिए 18 साल से कम उम्र असंवैधानिक है। अगर पति 15 से 18 साल की पत्नी से शारीरिक संबंध बनाता है तो उसे बलात्कार ही माना जाएगा।
सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला प्रशंसनीय तो है साथ ही इसकी कई अहम बातों पर ध्यान देने की भी जरूरत है। एक तो यही कि अदालत ने केंद्र सरकार की तमाम दलीलों को दरकिनार कर दिया और दूसरे कोर्ट ने कहा, बाल विवाह की कुरीती सदियों से चली आ रही है, इसे कानूनी जामा नहीं पहनाया जा सकता। यह अपराध है। कोर्ट ने यह भी कहा कि संसद ने ही कानून बनाया, 18 वर्ष से कम उम्र की बच्ची न तो कानूनन शादी कर सकती है न ही शारीरिक संबंध के लिए सहमति दे सकती है, फिर इस बात को वह सख्ती से लागू करने की बजाय वह बाल विवाह की पैरवी कैसे कर सकती है? संसद ने ही कानून के जरिये बाल विवाह को अपराध करार दिया है तो सवाल उठता है कि किसी बच्ची का बाल विवाह हो जाए और पति जबरन संबंध बनाए तो क्या यह अपराध नहीं है?
कोर्ट ने टिप्पणी की कि 18 साल से कम की उम्र में शादी बच्ची के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ है। यह संविधान के अनुछेद 14 के तहत बराबरी के हक और अनुछेद 21 के तहत जीने के अधिकार का भी हनन करता है। कोर्ट ने कहा, ये पॉस्को कानून के भी खिलाफ है। यही नहीं कोर्ट ने आईपीसी की धारा 375 के उस प्रावधान को भी असंवैधानिक करार दिया, जिसके तहत पति 15-18 साल की पत्नी के साथ शारीरिक संबंध बनाने को छूट की तरह इस्तेमाल कर बलात्कार के आरोप से बच जाता है। जस्टिस दीपक गुप्ता ने फैसले में जो लिखा है, उसकी सराहना की जानी चाहिए। उन्होंने लिखा है कि सभी कानूनों में शादी की उम्र 18 साल है और आईपीसी के तहत बलात्कार से जुड़े कानून में दी गई छूट या अपवाद को एकतरफा या मनमाना ही कहा जाएगा। ये किसी भी लडक़ी के अधिकारों का हनन करता है।
एक सर्वे के अनुसार देश में दो करोड़ से ज्यादा ऐसी नाबालिग लड़कियां हैं, जिनको जबरन शादी की जंजीरों में जकड़ा जा चुका है। राजस्थान, हरियाणा, पंजाब, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश में बाल विवाह तमाम कानूनों के बावजूद रुकने का नाम नहीं ले रहे हैं। अक्षय तृतीया के मौके पर तो हर साल हजारों की संख्या में बाल विवाह होते हैं। गौरतलब यह भी है कि हाल ही में हैदराबाद में मुस्लिमों में मुताह के नाम पर होने वाले बाल विवाह के तमाम मामले सामने आये हैं जिनमें अरब देशों के तमाम शेखों को पुलिस ने गिरफ्तार किया है। मुताह के नाम पर अरब के पचास से सत्तर साल आयु के शेख गरीब भारतीय मुस्लिम तबके की 12 से 15 साल की बच्चियों से निकाह कर अपने साथ ले जा रहे थे। ये साफ तौर पर मानव तस्करी का मामला है जिसे धर्म और रीति का नकाब ओढ़ा कर अंजाम दिया जा रहा है।
राजस्थान में भी इसी तरह बच्चियों को खरीदने-बेचने की जानकारियां मिलती हंै। शादी के नाम पर मानव तस्करी होती है। पहले इनका यौन शोषण होता है और फिर इन्हे बंधुआ मजदूर के समान घरेलू कामकाज में लगा दिया जाता है। जस्टिस मदन बी. लोकुर और जस्टिस दीपक गुप्ता की बेंच ने देश में बाल विवाह की परम्परा पर गहरी चिंता जताई है। उन्होंने कहा कि संसद ने जिस भावना से सामाजिक न्याय का कानून बनाया उसे उसी रूप में लागू नहीं किया, यह बेहद अफसोस की बात है। केंद्र और राज्य सरकारों को बाल विवाह रोकने की दिशा में तुरंत प्रभावी कदम उठाने चाहिए।
इस मामले में वे याचिकाकर्ता बधाई और सम्मान के पात्र हैं जिन्होंने देश की बच्चियों की चिंता की और अपने एनजीओ के माध्यम से सितंबर 2015 में याचिका दायर कर सुप्रीम कोर्ट का ध्यान इस बड़ी सामाजिक बुराई की ओर खींचा। उन्होंने मांग की कि आईपीसी की धारा 375 के अपवाद (2) के तहत लडक़ी के बाल विवाह के बाद उससे पति द्वारा बनाए गए शारीरिक संबंध को अपराध की श्रेणी में रखा जाना चाहिए। इसके पीछे उन्होंने तर्क दिया कि जब 18 साल से कम उम्र के बच्चे के साथ किसी भी तरह के यौन शोषण के लिए पॉस्को जैसा कानून है तो फिर शादी के बाद किसी नाबालिग के अधिकारों का हनन सिर्फ एक अपवाद के कारण क्यों होना चाहिए?
इसके बाद सुप्रीम कोर्ट की दो जजों की बेंच ने इसमें राष्ट्रीय महिला आयोग और केंद्र सरकार को पक्षकार बनाकर बाल विवाह और बाल वधुओं से जुड़े आंकड़े मांगे। मामले की 11 अक्टूबर, 2017 को कोर्ट ने तीन विकल्पों पर गौर किया। पहला विकल्प- धारा 375 के अपवाद (2) को हटा दिया जाए, दूसरा, ऐसे मामलों में पॉस्को एक्ट लगाया जाए और तीसरा कि यथास्थिति बनी रहनी दी जाए। केंद्र द्वारा बाल विवाह प्रथा पर रखी गई दलील को खारिज करते हुए सु्प्रीम कोर्ट ने पहले विकल्प को अमल में लाने का फैसला दिया, जिसकी जितनी प्रशंसा की जाये कम है।

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