सोनिया गांधी के पांच में से तीन सुझाव तो साधारण हैं-
1. केन्द्रीय बजट के खर्चों में 30 प्रतिशत कटौती की जाए।
2. राष्ट्रपति-प्रधानमंत्री-मंत्रियों के विदेशी दौरों पर रोक लगाई जाए।
3. नए संसद भवन के निर्माण का कार्य बीच में ही रोककर आगे के लिए स्थगित किया जाए।
शेष दो सुझावों में एक तो यह है कि प्रधानमंत्री स्थापित ‘पी.एम. केयर्स’ फण्ड की राशि ‘प्रधानमंत्री राष्ट्रीय सहायता कोष’ में स्थानान्तरित कर दी जाए। वहां पारदर्शिता अधिक होगी, कार्य की दक्षता और गुणवत्ता भी ज्यादा है।
इस सुझाव में तो कोई गंभीरता या विवेक, चिन्तन या दूरदर्शिता दिखाई नहीं देती। दोनों ही कोष प्रधानमंत्री के नियंत्रण में ही हैं। क्या एक में पारदर्शिता कम एवं दूसरे में अधिक संभव है? अथवा ‘प्रधानमंत्री केयर्स’ कोष के संचालन पर अंगुली उठाकर राजनीति की है? यदि ऐसा है तो पद की गरिमा के अनुकूल नहीं है।
पांचवां सुझाव, जो पत्र में एक नम्बर पर दिया गया है, वह मीडिया से जुड़ा है।
‘सम्पूर्ण मीडिया (टी.वी., प्रिंट, ऑनलाइन) के सरकारी तथा राजकीय उपक्रमों के विज्ञापनों पर पूर्णरूपेण निषेधाज्ञा जारी करें-दो वर्ष की अवधि के लिए। केवल ‘कोविद-19’ अथवा स्वास्थ्य से जुड़े विज्ञापन पर छूट दी जा सकती है। मेरा मानना है कि सरकार 1250 करोड़ रुपए सालाना इन विज्ञापनों पर खर्च करती है। शायद इतना ही खर्च सार्वजनिक उपक्रमों के द्वारा जारी विज्ञापनों पर भी होता होगा। यह बहुत बड़ी राशि है, जो कोरोना के संघर्ष में प्रभावी तरीके से काम आ सकती है।’
मुझे तो लगता है कि श्रीमती गांधी ने केन्द्र सरकार को मीडिया की निगरानी से बचाने की ठान ली है।
त्रेतायुग में धोबी ने जो टिप्पणी की थी-राम के व्यवहार के लिए, वैसी ही बिना विचारे यह टिप्पणी की है सोनिया गांधी ने। यह भी मानना कठिन है कि वे इटली जैसे विकसित देश की नागरिक रह चुकी हैं।
क्या कोई भी प्रधानमंत्री आज के हालात में देशवासियों से पूरी तरह कटकर रह सकता है? सच पूछें तो आज अफवाहों के बीच तो देश को विश्वसनीय मीडिया की ज्यादा जरूरत है। वैसे भी कांग्रेस की राज्य सरकारें मीडिया पर कितनी न्यौछावर हैं, यह देश के सामने है। क्या आप नहीं मानती कि मीडिया के बिना देश ठहर जाएगा। सूचनाओं के अभाव में कोरोना देश को लील जाएगा। सरकारी विज्ञापन तो आए दिन बंद होते ही रहते हैं। मीडिया इसका अभ्यस्त हो चुका है। नुकसान तो देशवासियों को होता है, क्योंकि सरकार की सूचनाएं उन तक नहीं पहुंच पातीं। मीडिया की सरकार और जनता के बीच सेतु की भूमिका खत्म हो जाती है।
भारत ही ऐसा देश है जहां अखबार कीमत (लागत के अनुपात में) से कम पर बिकता है। उसकी जीवन रेखा विज्ञापन ही है। इस संकट में सारे अखबार विज्ञापनों से शून्य होकर निकल रहे हैं। देश की सेवा में तन-मन से जुटे हुए हैं। हालात तो ऐसे बन ही चुके हैं कि अन्य उद्योगों की तरह मीडिया को भी बंद हो जाना चाहिए था। सरकारी धन बचना एक काल्पनिक बात ही है। केन्द्र सरकार हो या राज्य सरकारें, विज्ञापन तो लगभग बंद ही हैं। यह तो हमारा ही कोई संकल्प है, सोनिया जी! जो हम घर फंूककर अपनी भूमिका निभा रहे हैं। हम जनता हैं, जनता का अंग बनकर जनता की नाव में चल रहे हैं। जनता के साथ जीने-मरने का वादा है हमारा।
यदि आपकी सलाह मानकर सरकार विज्ञापन बंद कर दे, मीडिया बंद करा दे, तो लोकतंत्र का प्रहरी कहां बचेगा? आप चाहती हैं कि देश में विपक्ष तो पहले ही खत्म हो रहा है और अब मीडिया भी नहीं रहे? आपने कभी सोचा कि अगर मीडिया ही खत्म हो गया तो आपको (विपक्ष को) कौन कवर करेगा। सरकार की मनमर्जी को रोकने वाला भी नहीं रहे? आपका सपना क्या है?