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इस मर्ज की दवा क्या है?

पिछले दिनों संसद ने एक ऎतिहासिक फैसला देखा।
लोकसभा में शोरगुल कर रहे कांग्रेस के 25 सांसदों को

Aug 05, 2015 / 11:55 pm

मुकेश शर्मा

Parliament

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पिछले दिनों संसद ने एक ऎतिहासिक फैसला देखा। लोकसभा में शोरगुल कर रहे कांग्रेस के 25 सांसदों को स्पीकर ने पांच दिन के लिए निलंबित कर दिया। भारत के संसदीय इतिहास में ऎसा पहले कभी नहीं हुआ जब इतनी बड़ी संख्या में सांसद एक साथ निलंबित कर दिए गए हों।


इस मुद्दे पर सारा विपक्ष एकजुट हो गया है। इस घटनाक्रम ने हमारे सामने कई सवाल खड़े कर दिए हैं। यह पहली बार नहीं हुआ जबकि संसद में इस तरह का गतिरोध पैदा हुआ हो। बल्कि भारत के संसदीय इतिहास को देखें तो यह प्रवृत्ति बढ़ती ही जा रही है।


आखिर क्यों पैदा हो रहे हैं संसदीय कार्यवाही में गतिरोध ? क्या हो सकता है इनका हल ? कौन है इसके लिए जिम्मेदार ? दुनिया की दूसरी संसदों में क्या है स्थिति? ऎसे ही सवालों पर पढिए आज का स्पॉटलाइट :

अब प्रधानमंत्री करें पहल, तो बने बात

नीरजा चौधरी वरिष्ठ पत्रकार

संसद का ठप होना बहुत ही दुखद है। लोकतंत्र के इस मंदिर में बिल पास होते हैं। जनप्रतिनिधि बहस करते हैं। लेकिन, इसे शोरगुल का अखाड़ा बना दिया है। आखिर इस सारे मामले में नुकसान किसका हो रहा है, यह कोई नहीं सोच रहा है। ऎसा लगता है कि देश और जनता के बारे में सोचने की फुर्सत ना तो सरकार को है और ना ही विपक्ष को।


निलंबन ठीक नहीं


कांग्रेस के 25 सांसदों का निलंबन हुआ। फिर, क्या इसके बाद सदन की कार्यवाही ठीक से चल पाई? मेरा स्पष्ट तौर पर मानना है कि निलंबन की कार्यवाही बहुत ही ऎसी परिस्थिति में हो जबकि कोई चारा ही नहीं रह गया हो। शोरगुल से कामकाज नहीं करने देने की स्थिति के आधार पर निलंबन की कार्रवाई को कोई उचित नहीं कहेगा।


यदि गाली-गलौच हो, हिंसा हो, टेबल-कुर्सी फेंकी जा रही हों तो ऎसे में निलंबन की कार्रवाई की जानी चाहिए। यह अंतिम हथियार के तौर पर ही काम में लिया जाना चाहिए।


हालांकि सांसद का अध्यक्ष की टेबल तक पहुंच जाना भी किसी भी मायने में ठीक नहीं कहा जाएगा फिर भी निलंबन को उचित नहीं कहा जा सकता। निलंबन की कार्रवाई ऎसी लगती है जैसे कि विपक्ष मुक्त संसद का होना। लोकतंत्र के लिए यह स्थिति बहुत ही खतरनाक है।

विपक्ष की भूमिका


विपक्ष को जनादेश मिला है कि वह सरकार को उसके काम के लिए उत्तरदायी बनाए। वह राष्ट्रीय मुद्यों पर अपनी राय रखे और आवश्यकतानुसार विरोध करना हो तो विरोध भी करे। लेकिन, परेशानी यह है कि 2010 में जब भाजपा नेताओं ने 2जी मामले पर इसी किस्म का विरोध किया और इस्तीफों की मांग को लेकर संसद ठप की तो वे कांग्रेस की कोई बात सुनने को तैयार नहीं थे।


आखिरकार इस्तीफे हुए और सरकार को झुकना पड़ा। लेकिन, अब स्थिति उलट गई है और कांग्रेस विपक्ष में है और उसे मौका मिल गया है। वह भी ललित गेट और व्यापमं मामलों में इस्तीफों की मांग कर रही है और उसने संसद ठप कर रखी है। ऎसे में अब भाजपा के पास नैतिक आधार नहीं रह गया कि वह कांग्रेस से यह कहे कि गतिरोध तोड़कर संसद की कार्रवाई तो चालू करे।


हां, यह बात भी सही है कि कांग्रेस जिस बात को सत्ता में रहते हुए गलत बता रही थी, विपक्ष में रहते हुए वह भी वही काम कर रही है। उसका यह व्यवहार उसी रंजिश का परिणाम है तो पूर्व में भाजपा ने किया था लेकिन इसे सही भी नहीं ठहराया जा सकता।

कद्दावर बुजुर्ग नेता नहीं


वर्तमान में सरकार और विपक्ष के बीच टकराव का स्तर बहुत बढ़ गया है। दोनों के बीच अविश्वास की स्थिति बन चुकी है। दोनों तरफ के नेताओं के बीच संवाद की स्थिति ही नहीं है।


सरकार के मुखिया प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हैं और विपक्षी पार्टी कांग्रेस की नेता सोनिया गांधी दोनों में सो कोई भी संसद चलाने को लेकर बात करते नजर नहीं आते। ऎसा कोई कद्यावर नेता सदन में नहीं है, जिसकी बात को दोनों पक्ष सुनते और कामकाज की ओर लौटते। ऎसे नेता की कमी साफ महसूस हो रही है जो कटुता को समाप्त करने के मामले में पहल करता। एक सूरत यही बनती है कि प्रधानमंत्री मोदी पहल करें और संसद को चलाने के लिए आगे बढ़कर सोनिया गांधी से बात करें। ऎसा होता रहा है, अटल बिहारी वाजपेयी और नरसिम्हाराव के समय भी ऎसी स्थितियां बनती थीं लेकिन आगे बढ़कर कटुता को दूर कर लिया गया।



यह अजब स्थिति तो देखिए कि भूमि अधिग्रहण बिल पर सरकार पीछे हट रही है फिर भी इस मुद्ये के सहारे एक हाथ ले और दूसरे हाथ दे की रणनीति को लेकर संसद की कार्रवाई चलाने के लिए पहल नहीं कर रही है। सरकार झुक भी रही है लेकिन इसका कोई लाभ भी नहीं ले रही।


अब तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जिन्होंने लगभग चुप्पी सी साध रखी है, उन्हें इस मामले में आगे बढ़कर बात करनी चाहिए कि पूर्व में भाजपा ने जो गलती की, उसे कांग्रेस न दोहराए और संसद को चलाने की कोशिश की जाए। उम्मीद है कि उनकी ओर से ऎसा किया जाएगा। देश संसद सत्र बेकार जाने अपेक्षा तो नहीं रखता।


पूर्व में भाजपा जब विपक्ष की भूमिका में थी तो 2 जी मामले पर संसद की कार्रवाई ठप करके विरोध जता चुकी है। ऎसे में यदि वह अब संसद की कार्रवाई ठप करने वाली कांग्रेस से सदन की कार्रवाई चलने देने की बात करे तो उसके पास नैतिक आधार पर यह अधिकार रह नहीं गया है।


प्रति मिनट 2.5 लाख होते हैं खर्च


एक वर्ष में विभिन्न सत्रों में संसद लगभग अस्सी दिन बैठती है। रोज लगभग छह घण्टे की बैठक होती है। संसद का वार्षिक खर्चा देखा जाए तो हर मिनट लगभग 2.5 लाख रूपए खर्च होते हैं। यह जानकारी 2014 में संसदीय कार्यमंत्री ने दी थी।

बिल भी कम हो रहे पारित

कानून बनाने के महत्वपूर्ण विधायी काम में भी गिरावट देखी रही है। पहली लोकसभा में 49 प्रतिशत समय विधायी कार्यो/बहस पर खर्च हुआ था जो पन्द्रहवीं लोकसभा में घट कर सिर्फ 23 फीसदी रह गया। पहली लोकसभा में औसतन हर वर्ष 72 बिल पारित हुए थे। पन्द्रहवीं लोकसभा में यह संख्या घटकर हर वर्ष 40 पर आ गई है। “लेप्स” होने वाले बिलों की संख्या भी बढ़ रही है। पहली लोकसभा में 7 बिल लेप्स हुए थे जो 15वीं लोकसभा में बढ़कर 68 हो गए।

ब्रिटेन में निम्न सदन की बैठकें प्रतिवर्ष औसतन 150 दिन होती हैं। चुनाव के वर्ष में अवश्य यह संख्या घटकर 60 दिन के आसपास हो जाती है। अमरीका में प्रतिनिधि सभा औसतन 130 दिन बैठती है। भारत में संविधान यह तय नहीं करता कि किसी कार्यकाल में संसद कितने समय के लिए बैठनी चाहिए।


संविधान सिर्फ यह कहता है कि दो सत्रों के बीच की समयावधि छह माह से अधिक नहीं हो सकती। भारत में लोकसभा औसतन एक साल में 70 दिन बैठती है।चाकसू रॉय, पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च

प्रश्न काल भी दांव पर

संसदीय प्रक्रिया कहती है कि संसद की बैठक का पहला घंटा प्रश्न काल होगा। प्रश्न काल इसलिए होता है जिससे विपक्ष प्रश्न पूछकर सत्तापक्ष को जवाबदेह बना सके। पर देखा जा रहा है कि यह भी हंगामे की भेट चढ़ता जा रहा है। पन्द्रहवीं लोकसभा में तय प्रश्न काल का 61 प्रतिशत समय तथा राज्यसभा के प्रश्न काल का 59 प्रतिशत समय हंगामे की भेट चढ़ गया था। मानसून सत्र को देखें तो यह लोकसभा इसी दिशा में जाती प्रतीत हो रही है।

अब नहीं आते निजी बिल


संसद में हर वो सांसद जो मंत्री नहीं, निजी सदस्य गिना जाता है। इनके द्वारा पेश किया गया बिल निजी बिल कहा जाता है। सत्र के दौरान शुक्रवार को अंतिम ढाई घंटे निजी सदस्यों के प्रस्तावों को बिल के लिए रखे जाते हैं। 1956 के बाद से अब तक 14 निजी सदस्यों के बिल संसद ने पारित किए हैं।


इनमे से छह बिल तो केवल 1956 में ही पारित किए गएं। यही नहीं, 1970 के बाद से अब तक एक भी निजी बिल पारित नही किया जा सका है। 16वीं लोकसभा भी इसी दिशा में जा रही है।

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