चीन के साथ संबंधों की दिशा तय करना भारतीय विदेश नीति के समक्ष सबसे महत्त्वपूर्ण चुनौती है क्योंकि सीमा विवाद पर चीन के आक्रामक रवैये से भारत में असहजता की स्थिति बनी हुई है। विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने भी अपनी नवीनतम पुस्तक ‘वाइ भारत मैटर्स’ के लोकार्पण पर चीन के मुद्दे पर जवाहरलाल नेहरू के ‘आदर्शवाद’ और सरदार पटेल के ‘यथार्थवाद’ के मध्य वैचारिक द्वंद्व का उल्लेख कर एक नई बहस को जन्म दे दिया।
दरअसल, चीन की विस्तारवादी नीति से असहज स्थिति भारत ही नहीं, पूरी दुनिया के लिए बनी हुई है। पूर्वी चीन सागर और दक्षिण चीन सागर को चीन पूरी तरह से अपने प्रभाव का क्षेत्र मान बैठा है, और चीन के आक्रामक रवैये ने उसके अनेक पड़ोसी देशों में असुरक्षा की भावना को जन्म दिया है। यही कारण है कि ‘हिन्द-प्रशांत’ क्षेत्र को मजबूत बनाने के लिए भारत, अमरीका, ऑस्ट्रेलिया और जापान के साथ अनेक देश तत्पर हुए हैं। देखना यह होगा कि अमरीका के राष्ट्रपति चुनाव से पहले अमरीकी विश्वसनीयता को चुनौती देने के लिए अगर चीन और रूस ‘हिन्द-प्रशांत’ क्षेत्र में मोर्चा खोलते हैं तो भारत की प्रतिक्रिया क्या होगी।
भारत व पश्चिमी जगत की बात करें तो खालिस्तानी आतंकी व अमरीकी नागरिक गुरपतवंत सिंह पन्नू की हत्या के प्रयास में भारत की कथित संलिप्तता के अमरीकी आरोपों से जो अविश्वास पैदा हुआ है, वह स्थायी नहीं है। दूसरी ओर, कनाडा की राजनीति में खालिस्तानी ताकतों को पनाह मिलने से जो खटास भारत व कनाडा के द्विपक्षीय संबंधों में आई है, उसे दूर करना आसान नहीं होगा। यूरोप की बात करें तो 26 जनवरी को मुख्य अतिथि के रूप में फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों की भारत यात्रा से दोनों देशों के रिश्तों को नया आयाम मिलने की उम्मीद है जो रक्षा सहयोग, विशेषकर रक्षा उत्पादन व अत्याधुनिक रक्षा साजो-सामान के आयात को सुगम बनाने का मार्ग प्रशस्त करेगा। ब्रिटेन, जर्मनी, इटली व पोलैंड के साथ भी हमारे संबंध जितने प्रगाढ़ होंगे, यूरोप में पैर जमाने में भारत को उतनी ही मदद मिलेगी।
हाल ही में मालदीव ने हाइड्रोग्राफी के क्षेत्र में सहयोग के लिए भारत के साथ उस समझौते को नवीनीकृत नहीं करने का फैसला किया जो मार्च 2024 में समाप्त होने वाला है। नवनिर्वाचित राष्ट्रपति मोहम्मद मुइज्जू द्वारा मालदीव में तैनात भारतीय सैनिकों को वापस भेजने के ऐलान के तुरंत बाद उठाया गया यह कदम उनकी सरकार की चीन परस्ती का एक अहम संकेत है। दक्षिण एशिया में पड़ोसी देशों की भू-राजनीतिक वास्तविकताओं और अंतराष्ट्रीय स्तर पर वैश्विक ताकतों की नीतियों के मद्देनजर मोदी सरकार की अब तक की अनेक सफलताओं से बंधी उम्मीदों को बनाए रखना एक अहम चुनौती होगा।
भारत-पाकिस्तान के रिश्तों में लम्बे समय से चल रहे गतिरोध के कारण भारत को विश्व शक्तियों के प्रभाव को संतुलित करते हुए कश्मीर पर अपनी नई नीति को दृढ़तापूर्वक जारी रखना होगा। हालांकि पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने भारत के साथ सबंध सुधारने को लेकर कुछ सकारात्मक बयान दिए हैं, पर कोई भी निर्णायक पहल पाकिस्तान में आम चुनावों के बाद ही संभव है। हमें ध्यान रखना होगा कि पाकिस्तान के साथ भारत के रिश्ते अफगानिस्तान पर भी असर डालेंगे जहां कट्टरपंथी तालिबान का शासन है। अफगानिस्तान से अमरीका की नाटकीय वापसी के बाद जिन देशों ने वहां अपना प्रभाव जमाने की कवायद तेज कर दी है, उनमें ईरान, रूस और चीन प्रमुख हैं। चीन ने पिछले माह तालिबान के राजदूत को औपचारिक रूप से स्वीकार कर उन तमाम देशों के लिए सिरदर्द पैदा कर दिया है जिन्होंने अभी तक तालिबानी शासन को राजनयिक मान्यता नहीं दी है। भारत पर दबाव बढ़ेगा।
इजरायल-हमास संघर्ष ने पश्चिम एशिया के आर्थिक विकास के लिए कूटनीतिक गतिशीलता को अचानक तहस-नहस कर दिया है। दुनिया एक बार फिर आतंकवाद के मुद्दे पर विभाजित नजर आ रही है। अमरीका के परंपरागत प्रभुत्व वाले क्षेत्र में अब चीन और रूस अपनी पैठ बना रहे हैं। ईरान भी एक महत्त्वपूर्ण खिलाड़ी बन कर उभर रहा है। ऐसे में भारत को यह देखना होगा कि इजरायल और फिलिस्तीन दोनों को कैसे एक साथ साधा जाए।
बीते वर्ष जी-20 शिखर सम्मेलन के सफल आयोजन की गूंज पूरी दुनिया में सुनाई दी। ‘ग्लोबल साउथ’ की आवाज बनने का भारत का प्रयास काफी हद तक सफल रहा। भारत के प्रयासों से ही अफ्रीकी यूनियन को जी-20 में शामिल किया गया। संयुक्त राष्ट्र महासभा में 55 वोट की ताकत रखने वाले अफ्रीकी महाद्वीप के साथ निकटता सुरक्षा परिषद में भारत की स्थायी सदस्यता के लिए भी आवश्यक है। युगांडा में इसी महीने गुटनिरपेक्ष आंदोलन शिखर सम्मेलन में भी भारत का फोकस अफ्रीका के क्षमता संवर्धन में सहयोग बढ़ाने पर ही होगा। बदलती परिस्थितियों में रूस के साथ अपने रिश्तों की गर्माहट बनाए रखने का भारत पूरा प्रयास कर रहा है। मोदी और पुतिन पिछले साल सितंबर में उज्बेकिस्तान में एससीओ शिखर वार्ता के दौरान मिले थे पर यूक्रेन युद्ध के बाद कोई शिखर सम्मेलन नहीं हुआ है। जाहिर है कि रूस की चीन पर बढ़ती निर्भरता को देखते हुए भारत को आगे का रुख भी तय करना होगा।