गरीबी, ऋणग्रस्तता, बीमा कम्पनियों की मार, निम्न उत्पादकता, बढ़ती इनपुट-लागत, उत्पाद की घटती कीमत, एमएसपी का व्यापक लागत के आधार पर निर्धारण न होना, मौसम की मार, फसल की बीमारियां, बढ़ती डीजल की कीमतें व बढ़ता बिजली-बिल, सिंचाई के स्रोतों की समस्या, किसान-पुत्रों के रोजगार की समस्या व मेडिकल सुविधाओं का अभाव आदि। फिलहाल हम दो ही समस्याओं यथा ऋणग्रस्तता व सिंचाई के स्रोतों की ओर ध्यान आकर्षित करते हैं। हमारे देश में 86 प्रतिशत छोटे व सीमान्त किसान हैं, जो भयंकर कर्ज में डूबे हुए हैं। भारतीय किसान पर औसतन एक लाख रुपए से अधिक कर्ज है तथा छोटे कि सानों के लिए यह कर्ज चुकाना असम्भव सा ही है। केन्द्र की भाजपा सरकार ने अपने पहले कार्यकाल में उद्योगपतियों का 7.95 लाख करोड़ कर्ज बट्टे खाते में डाला था, जबकि किसानों को कोई राहत नहीं दी थी। अत: केन्द्र सरकार को केवल एक बारगी ऋण माफी करके किसानों को भी ऋण मुक्त कर देना चाहिए। किसानों में बढ़ती आत्महत्याओं का मुख्य कारण उनकी ऋणग्रस्तता ही है। इस प्रवृत्ति को शीघ्र रोकना अत्यावश्यक है।
जहां तक कृषि क्षेत्र को समर्थन का प्रश्न है वर्ष २०१९ की एक रिपोर्ट के अनुसार केन्द्र व राज्य दोनों मिलाकर भारतीय किसानों को कुल 3.36 लाख करोड़ रुपए की वार्षिक सब्सिडी दे रहे थे, जबकि डब्ल्यूटीओ के अनुसार वर्ष 1986 व 2003 के मध्य अमरीका में कृषि समर्थन 60 अरब डॉलर से बढ़कर 90 अरब डॉलर हो गया था तथा यूरोपीय संघ में कृषि समर्थन लगभग 100 अरब यूरो था। अत: विकसित राष्ट्रों की तुलना में भारतीय कृषि को प्राप्त समर्थन नगण्य सा ही है।
जहां तक सिंचाई के स्रोतों का प्रश्न है भारतीय कृषि आज भी मानसून का जुआ मानी जाती है, क्योंकि भारत में कुल फसल क्षेत्र का मात्र 34 प्रतिशत ही सिंचित क्षेत्र है। अलग से जल मंत्रालय बनाकर ही सरकार को अपनी जिम्मेदारी की इतिश्री नहीं कर लेनी चाहिए। हमें सिंचित क्षेत्र बढ़ाने की समग्र योजना बनानी चाहिए, जिससे बाढ़ जैसे प्राकृतिक आपदाओं को भी निंयत्रित किया जा सके व ड्रिप सिंचाई तथा स्प्रिंकल सिंचाई की विधि अपनाकर व पानी गटकने वाली फसलें जैसे धान आदि का क्षेत्र घटाकर पानी का मितव्ययतापूर्वक उपयोग हो सके। अन्यथा तो किसान व कृषि का भाग्य भगवान भरोसे ही रहेगा।