ईरान और हमास दोनों ने हानिया की मौत के लिए इजरायल को दोषी ठहराया है। ईरान द्वारा इजरायल पर जवाबी हमले की आशंका को ध्यान में रखते हुए भारत ने संयम बरतने का आह्वान किया है। पर भारत का कूटनीतिक झुकाव किसी पक्ष की ओर नहीं है। हानिया की हत्या पर सीधी प्रतिक्रिया देने के बजाय पश्चिम एशिया की स्थिति को चिंताजनक करार देना भारत की तटस्थ स्थिति का एक प्रतिबिंब है। हालांकि कुछ आलोचक इसे अस्पष्ट नीति कहेंगे। वैसे भारत ने हमास को आतंकवादी समूह की सूची में प्रतिबंधित नहीं किया है, पर आतंकवाद के मुददे पर भारत का रुख एकदम स्पष्ट रहा है। हानिया की हत्या पर स्पष्ट प्रतिक्रिया देकर भारत अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद के विरुद्ध संघर्ष को कमजोर नहीं करना चाहता। उल्लेखनीय है कि पिछले साल 7 अक्टूबर को हमास द्वारा इजरायल पर किए गए आतंकवादी हमले की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कड़ी निंदा की थी। इस बयान को भारत की दो-राज्य समाधान की परम्परागत फिलिस्तीन नीति में अचानक बदलाव के तौर पर देखा गया, पर भारत की पश्चिम एशिया नीति में रातों-रात कोई परिवर्तन नहीं आया है क्योंकि वह संतुलन की बुनियाद पर टिकी हुई है।
फिलिस्तीन का प्रश्न केवल पश्चिम एशिया के लिए ही अहम नहीं है। यह उन सब देशों के लिए महत्वपूर्ण है जहां मुस्लिम आबादी बड़ी संख्या में निवास कर रही है – फिर वह पश्चिमी देश हों या फिर भारत, इसलिए हानिया पर अस्पष्ट रुख भारत की संतुलनकारी कूटनीति को ही उजागर करता है। वर्तमान में भारत की पश्चिम एशिया नीति में आर्थिक कारक काफी अहम हो गए हैं। यदि अब भारत संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) और सऊदी अरब जैसे देशों से व्यापारिक और निवेश भागीदारी पर अधिक ध्यान देने लगा है, तो सुरक्षा के दृष्टिकोण से भारत के लिए ईरान भी एक महत्त्वपूर्ण देश है। ईरान दो प्रमुख मोर्चों पर भारतीय रणनीतिक सोच का एक महत्त्वपूर्ण घटक है। पहला, पश्चिम एशिया एवं अफगानिस्तान तक भारत की पहुंच आसान बनाने का जरिया। दूसरा, भारत की शिया आबादी पर ईरान की विचारधारा का संभावित असर। दरअसल, पश्चिम एशिया की विस्फोटक भू-राजनीति केवल भारतीय विदेश नीति के विकल्पों तक सीमित नहीं है, यह भारत के घरेलू विमर्श में भी शामिल है। क्षेत्र में सैन्य तनाव बढऩे से रणनीतिक संतुलन बनाए रखना चुनौतीपूर्ण व दुविधापूर्ण होता जा रहा है।
पिछले कुछ समय में कई जुलूसों के दौरान फिलिस्तीनी एकजुटता एवं इजरायल विरोधी भावनाओं का प्रदर्शन देखा गया है। यहां तक कि भारत में कार्यरत इजरायली कंपनियों के बहिष्कार का आह्वान भी किया गया। कुछ साल पहले भी ईरान के लोकप्रिय जनरल कासिम सुलेमानी की हत्या के विरोध में रैलियां निकाली गई थीं। ये तथ्य इसलिए चिंताजनक है क्योंकि इनका संबंध पाकिस्तान-प्रेरित आतंकवाद से न होकर भारत की मुस्लिम राजनीति की वैचारिक सोच से है। यह सही है कि इसका राजनीतिक असर फिलहाल नगण्य है, फिर भी यथास्थिति बनाए रखना अहम है ताकि इस्लामिक चरमपंथ की किसी धारा के भारत में उत्थान को रोका जा सके। जिस प्रचंडता से इस्लामिक कट्टरपंथियों ने बांग्लादेश में वापसी की है वह वैसे भी भारत के लिए नया सिरदर्द बन गया है। इसी पृष्ठभूमि में ईरान और इजरायल में बढ़ता तनाव भारत के लिए गंभीर चिंता का विषय है। गौरतलब है कि अप्रेल में ही ईरान ने दूर-दराज के लक्ष्यों तक पहुंचने में अपनी सैन्य-तकनीकी क्षमता का शानदार प्रदर्शन किया है। उस दौरान ईरान और उसके क्षेत्रीय प्रॉक्सी गुटों द्वारा लॉन्च किए गए ड्रोन, क्रूज और बैलिस्टिक मिसाइलें लगभग एक ही समय में इजरायल पहुंचे। ऐसी क्षमता के लिए बेहतरीन योजना और सटीकता की आवश्यकता होती है। इनमें से अधिकांश सैन्य क्षमताएं ईरान ने स्वदेशी रूप से और कड़े अमरीकी प्रतिबंधों के बावजूद हासिल की हैं।
भारत के लिए यह जरूरी हो गया है कि वह ईरान की बढ़ती क्षेत्रीय सैन्य उपस्थिति और मारक क्षमताओं को पहचाने और किसी भी परिस्थिति से निपटने के लिए तैयार रहे। ईरान लम्बे समय से अनेक शिया गुटों, जिसमें हिजबुल्लाह प्रमुख रहा है, के जरिए अपनी क्षेत्रीय महत्त्वाकांक्षाओं को पूरा कर रहा है। ईरानी प्रभाव, हमास और इस्लामिक जिहाद जैसे फिलिस्तीनी समूहों तक भी फैल चुका है। धीरे-धीरे ईरान-समर्थक प्रॉक्सी गुटों की ताकत में घातक इजाफा हुआ है। इनमें यमन में हूती और इराक में पॉपुलर मोबिलाइजेशन फोर्स (अल-हशद अश-शबी) शामिल हैं। अगर पश्चिम एशिया में युद्ध आरंभ होता है तो वह सीमित नहीं रहेगा क्योंकि ईरान मिसाइलों को लॉन्च करने के लिए अपने प्रॉक्सी गुटों का उपयोग अवश्य करेगा। तब ईरानी ड्रोन और मिसाइलों किस-किस दिशा में रुख करेंगी, इसका तो अनुमान ही लगाया जा सकता है। जाहिर है, ईरान के प्रति एक गंभीर दृष्टिकोण की आवश्यकता है जिसमें कूटनीतिक, सैन्य और विचारधारात्मक तत्वों का समावेश हो।