इंसानी लालच और विलासिता पर अंकुश से ही बचेगी धरती
हमें संकल्प लेना ही होगा कि हम धरती माता के विभिन्न घटकों यथा भूमि, जल, वन का सतत संरक्षण करेंगे। उनका उपयोग जीवन की रक्षा व वृद्धि के लिए ही करेंगे, अपने लालच और विलासिता को बढ़ाने के लिए इनका इस्तेमाल नहीं करेंगे।
Published: April 22, 2022 07:07:37 pm
चंडी प्रसाद भट्ट
गांधीवादी पर्यावरणविद और सामाजिक कार्यकर्ता, रेमन मैग्सेसे और गांधी शांति पुरस्कार से सम्मानित सृष्टि के असंख्य ग्रहों-उपग्रहों में हमारी पृथ्वी सबसे विशिष्ट है। हमारे शास्त्रों के अनुसार इस पृथ्वी पर 84 लाख जैव प्रजातियां हैं और इन सबके भरण-पोषण की सामथ्र्य इसमें मौजूद बताई जाती है। हम सबको जन्म देने वाली, हमारा पालन-पोषण करने वाली इस पृथ्वी पर हमने अपने लालच को बढ़ाकर एक प्रकार से संकट पैदा कर दिया है। पृथ्वी को हम धरती माता का सम्मान देते हैं। इसकी मूल संरचना के विभिन्न घटकों में असंतुलन की स्थिति पैदा हो गई है, जिससे मनुष्य सहित विभिन्न जैव प्रजातियों के अस्तित्व पर ही संकट पैदा हो गया है। यह संकट लगातार घनीभूत होता जा रहा है। इसलिए हमें पृथ्वी दिवस मनाने की जरूरत पड़ रही है।
आज हमारे देश का अधिकांश भाग पर्यावरणीय बिगाड़ से संत्रस्त हैं। एक ओर हमारी आवश्यकताएं बढ़ रही हैं, दूसरी ओर प्राकृतिक संसाधनों का उससे भी तेजी के साथ क्षरण हो रहा है। पानी के परंपरागत स्रोत सूख रहे हैं, वायुमंडल दूषित हो रहा है, मिट्टी की उर्वरा शक्ति क्षीण होने से उत्पादकता पर प्रभाव पड़ रहा है। भूक्षरण, भूस्खलन, भूमि कटाव, नदियों की धारा परिवर्तन की घटनाएं बढ़ रही हैं। बाढ़ से प्रति वर्ष हजारों लोगों की मृत्यु हो रही है और अधिक से अधिक क्षेत्रों में इसका फैलाव बढ़ रहा है। इस सबसे हमारी आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक समृद्धि के भविष्य पर भी प्रश्नचिह्न लग रहा है। सर्वाधिक दुष्प्रभाव पर्वतों पर पड़ रहा है। हिमालय, सह्याद्री, अरावली, दंडकारण्य के पहाड़ इससे सर्वाधिक प्रभावित हैं।
पिछली आपदाएं छोड़ भी दें, तो 21वीं सदी की शुरुआती आपदाओं ने बहुत नुकसान किया है। यह क्रम बढ़ता जा रहा है। 2013 के जून मध्य से आरंभ हुई गंगा की सहायक धाराओं की प्रलयंकारी बाढ़ ने केदारनाथ सहित पूरे क्षेत्र में विध्वंस किया। उत्तराखंड की इस त्रासदी ने हम सबको स्थिति का गंभीर विश्लेषण करने के लिए विवश कर दिया। 2021 में नंदादेवी नेशनल पार्क के मुहाने पर स्थित ऋषि गंगा से रैणी एवं तपोवन चमोली जिले में हुई भयंकर तबाही ने हिमालय क्षेत्र के टिकाऊ विकास के बारे में सोचने के लिए विवश किया है, क्योंकि इन आपदाओं ने न केवल स्थानीय लोगों की खेती-बाड़ी अपितु आर्थिकी को बुरी तरह से प्रभावित किया। साथ ही विद्युत एवं सिंचाई परियोजनाओं के अलावा हमारी अन्य विकास योजनाओं को भी नुकसान पहुंचाया।
हिमालय की यह दशा केवल प्राकृतिक कारणों से हुई हो ऐसा नहीं है, मानवकृत एवं व्यवस्था जनित कारण इसके लिए अधिक दोषी हंै। असल में भोगवादी व्यवस्था के असीमित, विस्तार, राजनीतिक इच्छाशक्ति के अभाव ने हिमालय क्षेत्र के प्राकृतिक संसाधनों पर अत्यधिक दबाव बनाया है जो विनाश के रूप में बार-बार सामने आ रहा है। हिमालय की नाजुकता का यह संक्षिप्त उदाहरण है, पर यह स्थिति दुनिया के कई देशों, मुख्य रूप से विकासशील एवं गरीब देशों में नजर आती है, जो दिनोंदिन गंभीर होती जा रही है। वर्तमान उपभोक्तावाद के दौर में अधिक से अधिक प्राप्त करो और अधिक से अधिक उपभोग करो की परिपाटी हमारी सामाजिक और आर्थिक संरचना के लिए अत्यंत घातक सिद्ध हो रही है। याद रहे, इस पृथ्वी पर कोई भी संसाधन असीमित नहीं हैं, उन्हें एक न एक दिन समाप्त होना ही है। इसलिए जरूरी है कि हम उतना ही उपभोग करें, जितना यह धरती सहन कर सकती है। यदि हम अपनी विचारधारा और व्यवहार इसके अनुरूप ढाल सकें, तो बहुत सारी समस्याओं का समाधान अपने आप ही हो सकता है। आज पृथ्वी दिवस के अवसर पर हमें स्वयं में यह चेतना विकसित करनी है कि हम पृथ्वी के मूल स्वरूप, उसके विभिन्न घटकों और इसके पर्यावरण को सुरक्षित रखने के लिए प्रयत्नशील होंगे।
हमें संकल्प लेना ही होगा कि हम धरती माता के विभिन्न घटकों यथा भूमि, जल, वन का सतत संरक्षण करेंगे। उनका उपयोग जीवन की रक्षा व वृद्धि के लिए ही करेंगे, अपने लालच और विलासिता को बढ़ाने के लिए इनका इस्तेमाल नहीं करेंगे। यह भी संकल्प लेना होगा कि सुंदर वसुंधरा को स्वच्छ और सुंदर बनाए रखने के प्रति हम सदैव सचेत और सक्रिय रहेंगे और आने वाली पीढिय़ों के लिए अधिक उपयोगी बनाने के लिए प्रयत्नशील रहेंगे।

इंसानी लालच और विलासिता पर अंकुश से ही बचेगी धरती
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