उनतीस वर्ष बाद बोफोर्स विवाद का जिन्न एक बार फिर बोतल से बाहर है। इस बार राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी के स्वीडन के एक अखबार को दिए साक्षात्कार ने बोफोर्स घोटाले को सुर्खियों में ला दिया।प्रणव दा ने कहा (जैसा अखबार में छपा) कि बोफोर्स विवाद मीडिया की उपज थी। अभी तक किसी न्यायालय ने इसे घोटाला साबित नहीं किया है। अब स्टॉकहोम में भारतीय राजदूत ने अखबार के मुख्य संपादक को पत्र लिखकर राष्ट्रपति के साक्षात्कार से बोफोर्स वाला हिस्सा वापस लेने को कहा है।पत्र में अखबार के प्रति नाराजगी जताते हुए कहा गया कि उसने राष्ट्र प्रमुख के रूप में राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी के प्रति सद्भाव व सम्मान प्रकट नहीं किया है। इस पत्र ने इंटरव्यू पर छिड़ी चर्चा को और हवा दे दी। अखबार ने अंश हटाने से इनकार कर दिया। सवाल यह उठता है कि मीडिया के द्वारा उजागर किसी घोटाले या भ्रष्टाचार को कितना सही माना जाए? जबकि इसके आधार पर एक सरकार का पतन हो गया।भारत से लेकर स्वीडन तक सरकारी तौर पर, संसदीय समितियों और तमाम एजेंसियों की ओर से जांच की गई। फिर भी आज तक किसी न्यायालय में इसे साबित नहीं कर पाना या न्यायालय का फैसला नहीं आ पाना क्या साफ संकेत नहीं था कि मात्र मीडिया को हथियार बनाकर राजनीतिज्ञ अपना उल्लू सीधा कर लेते हैं? 1986 में बोफोर्स तोप खरीद का समझौता हुआ। 1989 में राजीव सरकार में रक्षा मंत्री रहे वी.पी. सिंह बोफोर्स मुद्दे को ही भुनाकर प्रधानमंत्री बने। इसके बाद तीन दशक से यह मुद्दा राजनीति का हथियार बना हुआ है। आश्चर्य की बात तो यह है कि हर सरकार के रक्षा मंत्री ने बोफोर्स तोप को बेहतरीन बताया। करगिल युद्ध में विजय के पीछे बोफोर्स ही थी। इस घोटाले ने विश्व के सबसे बडे लोकतंत्र में किसी संवेदनशील मुद्दे पर फैसला नहीं कर पाने से न्यायिक व्यवस्था की पोल भी खोली है। साथ ही जांच एजेंसियों की कार्यप्रणाली का सच भी सबके सामने ला दिया है। होना तो यह चाहिए था कि मीडिया में जो कुछ भी उजागर हुआ उसकी समयबद्ध निष्पक्ष जांच की जाती ताकि ना तो राजनेता इसका फायदा उठाते और ना ही अनर्गल प्रचार से मतदाता को भ्रमित कर पाते।खैर अब जब यह जिन्न बाहर आ ही गया है तो सरकार को एक सबक तो लेना ही चाहिए कि यदि मीडिया में कोई मुद्दा आता है तो उसकी निष्पक्ष जांच हो। न्यायालय में समयबद्ध सुनवाई हो ताकि कोई दोष्ाी हो तो उसकी सजा तय हो, निर्दोष्ा हो तो बरी हो जाए। जांच और न्याय में समय लगने से राजनीति करने वालों को मौका मिल जाता है जो कि ना तो किसी व्यक्ति विशेष्ा और ना ही देश हित में होता है। यह मुद्दा मीडिया को भी और जवाबदेही अपनाने का संदेश देता है।