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नजर आ रहा है राष्ट्रीय स्तर पर लोक कलाओं का दखल

Published: Oct 16, 2022 08:56:00 pm

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Patrika Desk

लोक कलाओं के प्रति सरकारों की उदासीनता का रोना तो हम रोते रहे, सवाल है कि अपने लोक संगीत के प्रति हम किस हद तक ईमानदार और मौलिक हैं या फिर प्रोफेशनल होने के दबाव में हमने अपनी कला को बाजार के सामने कितना समर्पित कर दिया है। इस वर्ष नंचम्मा अकेली नहीं थी, हरियाणवी में 'दादा लखमी', राजस्थान की मांगणियार गायकी से जुड़े मोती खान पर बने 'वृत्तचित्र पर्ल ऑफ द डेजर्ट' जैसी फिल्में भी सितारों की दुनिया में बढ़ते लोक और खासकर जनजातीय दखल को रेखांकित करती हैं।

नजर आ रहा है राष्ट्रीय स्तर पर लोक कलाओं का दखल
नजर आ रहा है राष्ट्रीय स्तर पर लोक कलाओं का दखल
विनोद अनुपम
राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार प्राप्त कला समीक्षक

इ स वर्ष आयोजित राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार समारोह में दो ही व्यक्तियों को 'स्टैंडिंग ओवेशनÓ मिला। संयोग नहीं कि दोनों ही महिलाएं थीं। देश में बदलाव का एक प्रतीक यह भी है। एक तो अपने समय की लोकप्रिय अभिनेत्री आशा पारेख थीं, जिन्हें भारतीय सिनेमा के सबसे बड़े सम्मान दादा साहब फाल्के से सम्मानित किया गया था। दूसरी थीं सर्वश्रेष्ठ पाश्र्वगायन के पुरस्कार रजत कमल और 50 हजार रुपए से सम्मानित नंचम्मा। पुरानी चप्पल, टखने से ऊपर पुरानी साड़ी, बगैर किसी मेकअप के अपनी सहमी मुस्कान के साथ जब 64 वर्षीय नंचम्मा ने मंच पर कदम रखा, तो तालियां बजाते हुए लोग धीरे-धीरे स्वत: खड़े होने लगे। दिल्ली के विज्ञान भवन के सुसज्जित सभागार में हिंदी सिनेमा के अजय देवगन और दक्षिण के सूर्या जैसे सिनेमा के चमकते चेहरों के बीच नंचम्मा की उपस्थिति वाकई एक नए भारत को प्रदर्शित करने वाली थी।
केरल के पलक्कड़ जिले के अट्टापट्टी गांव से आईं नंचम्मा को यह पुरस्कार मलयालम की एक मुख्यधारा की एक्शन थ्रिलर फिल्म 'अय्यप्पनुम कोशियुम ' के टाइटल गीत के लिए मिला था। गीत इरुला जनजातियों की भाषा इरुला में ही है। नंचम्मा उन भाग्यशाली लोगों में हंै, जिन्होंने पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही गीत और संगीत की मौखिक परंपरा को सहेज कर ही नहीं रखा, उसे समृद्ध भी बनाया है। नंचम्मा के लिए बकरियों को चराते हुए और खेतों में काम करते हुए ऐसे गीत गाना जीवन का हिस्सा है, कोई काम नहीं। आश्चर्य नहीं कि एक मलयालम संगीतकार विनुलाल ने नंचम्मा के चयन पर सवाल उठाया कि वे प्रोफेशनल गायिका नहीं हंै, फिर पाश्र्वगायिका पुरस्कार उन्हें कैसे मिल सकता है। हो सकता है सिनेमा के व्याकरण के हिसाब से वे प्रोफेशनल नहीं हों, लेकिन जो गायन उन्होंने अपनी परंपरा और अपने अभ्यास से हासिल किया है, उसकी मौलिकता को कैसे नजरअंदाज किया जा सकता है। वाकई लोक का संसार इतना विपुल है कि उसे किसी व्याकरण में समेट पाना ही सहज नहीं।
वास्तव में नंचम्मा के सम्मान को व्यापक फलक पर देखने की आवश्यकता है कि जब इरुला को यह सम्मान मिल सकता है, तो मैथिली, भोजपुरी, मेवाती, हरियाणवी, ब्रज, या अवधी को क्यों नहीं। लोक कलाओं के प्रति सरकारों की उदासीनता का रोना तो हम रोते रहे, सवाल है कि अपने लोक संगीत के प्रति हम किस हद तक ईमानदार और मौलिक हैं या फिर प्रोफेशनल होने के दबाव में हमने अपनी कला को बाजार के सामने कितना समर्पित कर दिया है। इस वर्ष नंचम्मा अकेली नहीं थी, हरियाणवी में 'दादा लखमी', राजस्थान की मांगणियार गायकी से जुड़े मोती खान पर बने 'वृत्तचित्र पर्ल ऑफ द डेजर्ट' जैसी फिल्में भी सितारों की दुनिया में बढ़ते लोक और खासकर जनजातीय दखल को रेखांकित करती हैं।
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