इस मामले में चुनाव आयोग को अतिरिक्त सावधानी बरतनी होगी। दरअसल, चुनावी रेवडिय़ों को व्यावहारिकता की कसौटी पर तोलने के किसी संभावित तरीके का भी व्यावहारिक पक्ष देखना जरूरी होगा। उदाहरण के लिए यदि कोई दल चुनावी सौगात का वादा करता है तो उसे बताना होगा कि सौगात कुल कितने लोगों तक पहुंचेगी, संभावित खर्च क्या होगा, उक्त रकम आखिर कहां से आएगी, राजस्व में वृद्धि की जाएगी या किसी अन्य खर्च में कटौती, राजस्व में वृद्धि के उपाय क्या होंगे, आम जनता पर टैक्स का बोझ कितना बढ़ेगा, यदि अन्य खर्च में कटौती की जाती है तो वह कितना तर्कसंगत होगा, इत्यादि। फौरी तौर पर यह व्यवस्था उचित प्रतीत होती है, पर इसके व्यावहारिक पक्ष में कई असंगतियां भी हैं। सत्तारूढ़ दल के लिए भी संसद में प्रस्तुत बजट प्रस्तावों को तर्कसंगत बता पाना अक्सर मुश्किल होता है। इसीलिए अब बजट प्रस्तावों को ‘आर्थिक नजरिया’ (इकोनॉमिक विजन) कहा जाने लगा है। विपक्षी दलों के पास सरकार की तरह विशेषज्ञों की टीम, सुविधाएं और संरचनाएं नहीं होतीं। ऐसे में सत्ता पक्ष अपने वादों का तर्कपूर्ण विवरण आसानी से दे सकता है, पर अन्य दलों के लिए यह कठिन होगा।
चुनावी रेवड़ियों को तर्कसंगत बनाने की बात सैद्धांतिक रूप से स्वीकार्य है। पर चुनाव आयोग को यह सुनिश्चित करना होगा कि पक्ष और विपक्ष समान मैदान पर ही चुनावी खेल दिखाएं। यह भी देखा जाना चाहिए कि चुनावी वादों को अमल में लाने की मियाद क्या है? यह देखा गया है कि सत्तारूढ़ होने पर स्कीम तो शुरू कर देते हैं पर तुरंत वास्तविक लाभ नहीं मिल पाता, जबकि कई बार दोबारा चुने जाने के लिए वादों पर अमल अगले चुनाव तक टलता जाता है।