मार्च 2020 में, स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा जारी ‘‘कोविद -19 डेड बाॅडी मैनेजमेंट के दिशा-निर्देश’’ कहते हैं कि रिश्तेदारों द्वारा शव को देखना, और धार्मिक अनुष्ठानों जैसे धार्मिक लिपियों से पढ़ना, पवित्र पानी को छिड़कने सहित अन्य अंतिम संस्कार की अनुमति दी जा सकती है। हालांकि, मृत शरीर के स्पर्श, स्नान, चुंबन, गले आदि की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए। ‘भस्म’ कोई जोखिम को जन्म नहीं देती, इसलिये अंतिम संस्कार करने के लिए एकत्र की जा सकती है। दिशा-निर्देश यह भी स्पष्ट करते हैं कि शव को या तो रिश्तेदारों को सौंप दिया जाएगा या उसे शवगृह में ले जाया जाएगा। इसलिये, वर्णनात्मक दिशा-निर्देशों के बावजूद, शवों के साथ छेड़छाड़ करना अन्यायपूर्ण और अवैधानिक है।
भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1923 में मृत्यु के बाद किसी व्यक्ति की वसीयत के निष्पादन का प्रावधान है। 1994 के ट्रांसप्लांटेशन आफ ह्यूमन आर्गन्स एक्ट के प्रावधानों को छोड़कर, ऐसे अधिकार किसी भी आरोपी या दोषी व्यक्ति के लिए भी बरकरार हैं। राज्य ऐसे शवों के निपटान के लिए बाध्य है जो अन्य जीवित प्राणियोें की सुरक्षा के लिए खतरनाक हो सकते हैं।
किसी मृत शरीर के गरिमापूर्ण निपटान का मुद्दा नया नहीं है। रामशरण (1989) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि जीवन के अधिकार में वह सब शामिल होगा, जो किसी व्यक्ति के जीवन को अर्थ देता है, उसकी परंपरा, संस्कृति, विरासत और उस विरासत का संरक्षण। परमानंद कटारा (1995) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने सहमति व्यक्त की कि गरिमा और न्यायपूर्ण उपचार का अधिकार केवल एक जीवित व्यक्ति को ही नहीं बल्कि उसकी मृत्यु के बाद उसके शरीर को भी मिलता है।
शव की सभ्य अंत्येष्टि या दाह संस्कार धार्मिक मान्यताओं के सम्मान और अहसास को बनाए रखता है। गरिमापूर्ण निपटान करने का प्राथमिक कर्तव्य परिवार के सदस्यों का है। महामारी या अन्य कारणों से यदि यह जिम्मेदारी राज्य द्वारा निभाई जाती है, तो मृत व्यक्ति की धार्मिक भावनाओं की रक्षा की जाना चाहिए। न्यायालयों ने पहले से ही संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत किसी व्यक्ति के मृत शरीर के शवदाह या अंत्येष्टि को मौलिक अधिकारों का एक हिस्सा माना है। यह ‘मानवीय गरिमा के अधिकार’ का हिस्सा है। इसलिए यह आवश्यक है कि संविधान की भावना और समाज की धार्मिक भावनाओं को सम्मानजनक तरीके से संरक्षित किया जाए।