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द वाशिंगटन पोस्ट से… आंकड़ों और जनता की रोजमर्रा की जिंदगी में अंतर

Published: Dec 02, 2021 10:46:36 pm

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Patrika Desk

अर्थव्यवस्था: उम्मीद है कि जिस प्रकार 1918 में आई महामारी के बाद बीसवीं सदी में अर्थव्यवस्था की स्थिति मजबूत रही, ठीक उसी प्रकार इस महामारी के बाद भी ऐसा ही हो, लेकिन तय है कि मनोवैज्ञानिक असर सालों रहेगा। अर्थशास्त्रियों को अर्थव्यवस्था बहाली से खुश होने में इतनी जल्दबाजी नहीं दिखानी चाहिए। यह हमारे सहज होने से तय होगा कि अर्थव्यवस्था गति पकड़ रही है या नहीं। आंकड़ों यानी डेटा से यह तय नहीं होगा।

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मिशेलिन मेनार्ड
(वरिष्ठ स्तंभकार – द वाशिंगटन पोस्ट)

स्कॉटिश इतिहासकार थॉमस कारलिल को इस बात का श्रेय दिया जाता है कि वे अर्थशास्त्र को ‘निराशाजनक विज्ञानÓ कहते हैं। विडंबना यह है कि मौजूदा दौर में कुछ अर्थशास्त्री बाजार से बहुत खुश हैं, जबकि उपभोक्ता उदास हैं। दरअसल उनके आंकड़ों यानी डेटा और हमारी रोजमर्रा की जिंदगी में अंतर है। कोष सचिव जैनेट येलैन ने सीनेट बैंकिंग कमेटी के समक्ष कहा ‘मुझे विश्वास है कि हमारी आर्थिक बहाली काफी सशक्त और उल्लेखनीय रहेगी।Ó यूनिवर्सिटी ऑफ मिशिगन में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर बेटसे स्टीवेन्सन ने ट्वीट कर कहा ‘आज एक अमरीकी नागरिक की स्थिति फरवरी 2020 के मुकाबले बेहतर है और यह किसी चमत्कार से कम नहीं है।
वित्तीय मामलों के लेखक फैलिक्स सालमन और राजनीतिक लेखक हैन्स निकोलस लिखते हैं कि अर्थव्यवस्था अच्छी चल रही है, लेकिन मतदाताओं को इस पर विश्वास नहीं है। उन्होंने वित्तीय परिलाभों की सूची बनाई है, जिसमें नौकरी में वृद्धि, स्टॉक मार्केट में उछाल और घर की बढ़ती समृद्धि तक को शामिल किया गया है। अक्टूबर में करवाए गए सर्वे में पाया गया कि 68 प्रतिशत लोगों की वित्तीय स्थिति या तो पहले जैसी ही रही या खराब हुई। वैश्विक स्तर पर 77 प्रतिशत लोगों की स्थिति यही है। फेडरल रिजर्व के अध्यक्ष जेरोम पॉवेल ने कहा, अर्थव्यवस्था की बहाली के साथ ही चुनौतियां और समानताएं दोनों एक साथ सामने आएंगी।
कोविड-19 का नया वैरिएंट ओमिक्रोन आने के साथ ही लग रहा है कि चुनौतियां अभी खत्म नहीं हुई हैं। यूनिवर्सिटी ऑफ मिशिगन के प्रोफेसर डॉनल्ड ग्रिम्स के अनुसार, ‘हमें खुश होना चाहिए, लेकिन हम खुश नहीं हैं। एक वैश्विक कन्सल्टिंग फर्म एलिक्स पार्टनर्स द्वारा दुनिया भर में 7000 लोगों पर किए गए अध्ययन ‘द इंटरनेशनल कंज्यूमरÓ से ज्ञात होता है कि इसका असर उपभोक्ताओं की खरीदने की प्रवृत्ति पर पड़ रहा है। लाखों लोग सामान खरीदने की अपनी प्रवृत्ति की समीक्षा कर रहे हैं। सामाजिक-आर्थिक स्तर पर दो अलग-अलग भाव पनप रहे हैं।
उच्च श्रेणी के उपभोक्ताओं ने अपने खर्चे कम कर दिए हैं, क्योंकि वे जरूरी नहीं हैं और हमारी जीवनशैली में फिट नहीं बैठते। कम आय वाले खरीददार इसलिए खर्चा नहीं कर रहे हैं, क्योंकि वे अब पहले जितना ही खर्च नहीं कर सकते। कारण चाहे जो भी रहा हो, नौकरी छूटना या आय न होना या अब महंगाई। महामारी का अर्थव्यवस्था पर पड़ा प्रभाव दीर्घगामी हो सकता है।
आज हर जगह अर्थव्यवस्था की हालत खराब है। गैस की कीमतें बढ़ गई हैं। बड़े-बड़े स्टोरों में सामान कम दिखने लगा है। कोविड-19 संक्रमण फैलने और स्टाफ के छुट्टी पर रहने के कारण थैंक्सगिविंग के मौके पर स्कूल एक सप्ताह से ज्यादा समय के लिए बंद रहे। व्यापक पैमाने पर टीकाकरण के बावजूद जीवन सामान्य नहीं हो पा रहा। कोरोना महामारी जाने का नाम नहीं ले रही और अधिकारी मास्क पहनने और अन्य सुरक्षा उपाय अपनाने के लिए कह रहे हैं।
रेस्टोरेंट मालिकों के लिए यह मुश्किल दौर है। नई दुकानों में सामानों की कीमतें में भारी वृद्धि हुई है। सामान की कमी के चलते उन्हें पहुंचाने में भी काफी दिक्कत का सामना करना पड़ रहा है। कैफे की मालकिन जेनी सोन्ग को भी ऐसी ही मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है। उन्होंने अपने एक कैफे के मैन्यू के सारे आइटम की कीमतें बढ़ा दीं और एक अन्य कैफे को बंद कर दिया। वे कहती हैं कैफे चलाने की बढ़ती लागत के साथ ही हर सप्ताह किसी न किसी चीज की कमी बनी रहती है।
उम्मीद ही की जा सकती है कि जिस प्रकार 1918 में आई महामारी के बाद बीसवीं सदी में अर्थव्यवस्था की स्थिति मजबूत रही, ठीक उसी प्रकार इस महामारी के बाद भी ऐसा ही हो, लेकिन एक बात तय है कि कोविड-19 की वजह से फैली हताशा का मनोवैज्ञानिक असर सालों रहेगा, बल्कि दशकों तक रहेगा। अर्थशास्त्रियों को अर्थव्यवस्था बहाली से खुश होने में इतनी जल्दबाजी नहीं दिखानी चाहिए। यह हमारे सहज होने से तय होगा कि अर्थव्यवस्था गति पकड़ रही है या नहीं। आंकड़ों यानी डेटा से यह तय नहीं होगा।
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