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दो दीयों की बाती, कलाम की पाती… इसे समझने से ही गण के लिए तंत्र

locationजयपुरPublished: Jan 25, 2021 05:56:34 pm

Submitted by:

Neeru Yadav

गणतंत्र दिवस के इस खास मौके पर वरिष्ठ पत्रकार सीताराम झालानी की कलम से…

दो दीयों की बाती, कलाम की पाती... इसे समझने से ही गण के लिए तंत्र

दो दीयों की बाती, कलाम की पाती… इसे समझने से ही गण के लिए तंत्र


सम्राट चन्दगुप्त मौर्य के प्रधानमंत्री चाणक्य के आवास पर उनसे मिलने गए एक सज्जन को यह देखकर आश्चर्य हुआ कि इतने विशाल मौर्य साम्राज्य का प्रधानमंत्री इस प्रकार नदी के किनारे एक साधारण कुटिया में निवास करता है। तब चाणक्य का उत्तर था कि जिस राज्य के मंत्री विशाल महलों में विलासितापूर्ण जीवन-यापन करते हैं, उस राज्य की जनता को झोपड़ियों में जीवन गुजारना पड़ता है।
एक अन्य उदाहरण भी चाणक्य का ही दृष्टव्य है कि एक सज्जन रात्रि के समय जब चाणक्य से मिलने गए तब वे अपनी कुटिया में राजकाज निपटा रहे थे। आगन्तुक से बातचीत शुरू करने से पूर्व उन्होंने पहले से जल रहे दीपक को बुझाया और एक दूसरा दीपक जलाया। इस पर आगन्तुक सज्जन ने आश्चर्यचकित होकर एक दीपक बुझाने और दूसरा जलाने का आशय पूछा तो चाणक्य का उत्तर था कि उस समय वे सरकारी कामकाज निपटा रहे थे, इसलिए सरकारी तेल का दीपक जल रहा था और अब आपसे मैं निजी बातचीत कर रहा हूं इसलिए यह दीपक मेरे स्वयं के तेल वाला जलाया है।
कहने के लिए यह उदाहरण सैंकड़ों वर्ष पुराने हैं लेकिन आज की राजनीति में भी लूट-खसोट और आपाधापी के बावजूद ए.पी. जे. कलाम जैसे अनुकरणीय उदाहरण हैं। विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश के राष्ट्रपति पद से निवृत्त होने के बाद जब वे राष्ट्रपति भवन से विदा हुए तो उनके दोनों हाथों में केवल दो छोटी-छोटी अटेचियां थीं, जिनमें एक में उनके कपड़े और दूसरी में उनकी पुस्तकें थीं।
कलाम ने अपने और अपने परिजनों तथा निजी अतिथियों के लिए 320 कमरों वाले विशाल राष्ट्रपति भवन में निजी उपभोग के लिए केवल तीन कमरे लिए थे। कलाम उनसे मिलने आने वाले मित्रों, परिजनों और रिश्तेदारों के चायपान व भोजन आदि का भुगतान स्वयं करते थे।
इसी प्रसंग में अपने समय के विख्यात धनपति रामकृष्ण डालमिया के एक संस्करण का उल्लेख करना उचित होगा, जिन्होंने दिल्ली के गणेशमल नामक एक मंत्री को जब यह कहा कि मंत्री जी आप बहुत कंजूस हो, मैं पन्द्रह वर्षों से आपको यह एक ही कोट पहनते देख रहा हूं। इस पर मंत्री जी का जवाब था कि आपकी शिकायत सही है। मुझे जो मासिक वेतन मिलता है, उसका ठीक आधा भाग कुछ अनाथालयों व शिक्षण संस्थाओं को चला जाता है और शेष आधे भाग में से आधा पैसा मैं अपनी धर्मपत्नी को गृहस्थ-संचालन के लिए दे देता हूं। शेष आधी राशि मैं अपने पास इसलिए रख लेता हूं कि कोई गरीब विद्यार्थी फीस के लिए या कोई रोगी दवा के लिए अनायास आ जाए तो उसे निराश नहीं जाना पड़े।
हां, मैंने एक बार नया कोट सिलवाने का मानस अवश्य बनाया था, लेकिन उस पर 138 रुपए का खर्चा आता था। इसलिए मैंने यह सोच कर अपना इरादा बदल लिया कि यह कोट अभी कहीं फटा तो है नहीं, इसलिए इसी से काम चलाना क्या बुरा है। ऐसा ही एक प्रसंग राजस्थान के स्वतंत्रता सेनानी शाहपुरा (भीलवाड़ा) के प्रो. गोकुल लाल असावा का है जो सबसे पहले बने राजस्थान के प्रधानमंत्री मनोनीत हुए थे और कोटा जिसकी राजस्थानी थी। प्रो. असावा अ. भा. कांग्रेस कमेटी की कार्यकारिणी समिति के राजपूताना से मनोनीत पहले सदस्य थे। भारत के तत्कालीन गृहमंत्री तथा रियासती मंत्रालय के अध्यक्ष सरदार पटल ने एक आई.सी.एस. अधिकारी को उनका प्रशासनिक सलाहकार बना कर कोटा भिजवा दिया। असावा ने उस अधिकारी को ज्वाइन कराने से यह कहकर मना कर दिया कि मेरी गरीब सरकार इतना महंगा अधिकारी सहन नहीं कर सकती।
इस पर उस अधिकारी ने सरदार पटेल को जब यह सूचना दी तो उन्होंने प्रो. असावा को फोन कर कहा कि अरे असावाजी! आप नेता लोग जुलूस निकाल लो, सभाएं कर लो, भाषण कर लो, जिन्दाबाद मुर्दाबाद कर लो,लेकिन प्रशासन चलाने के लिए तो सलाहकार की जरूरत पड़ेगी। यह सुनते ही प्रो. असावा ने सरदार पटेल को स्पष्ट कह दिया कि मैं अपना इस्तीफा इसी को दे देता हूं। तब सरदार पटेल को यह मानना पड़ा कि अधिकारी को वापस भिजवा दे।
बाद में इस सरकार का जब पहला महीना हुआ तो प्रो. असावा का निजी सचिव तनख्वाह का बिल लेकर आया। उसे देखते ही प्रो. असावा ने कहा कि क्या हम कोई सरकारी कर्मचारी हैं जो तनख्वाह लेकर काम करेंगे। इस पर निजी सचिव ने बताया कि रियासती मंत्रालय से यह आदेश आया है कि प्रधानमंत्री का इतना तथा मंत्रियों का मासिक वेतन इतना होगा। तब प्रो. असावा ने कहा कि हमें अभी प्रजामंडल से एक सौ रुपया मासिक निर्वाह व्यय मिलता है। यदि हम बड़े आदमी हो गए हैं तो एक सौ के बजाय सवा सौ रुपये ले लेंगे लेकिन लेंगे वहां से ही। तब निजी सचिव ने सुझाव दिया कि आप इस पर हस्ताक्षर कर किसी को दान में राशि दे दें। लेकिन प्रो. असावा इस पर भी सहमत नहीं हुए और कहा कि सरकारी पैसे के लिए तो मैं हस्ताक्षर भी नहीं करूंगा। और आज लोकतंत्रीय व्यवस्था में स्थिति ऐसी हो गई है कि जो विधायक शपथ पत्र तक नहीं पढ़ सकते और अपने पांच वर्ष के समूचे कार्यकाल में कभी एक बार भी खड़े होकर दो शब्द तक नहीं बोलने का रिकार्ड बना देते हैं उन्हें राजकोष से लाखों रुपये मासिक वेतन भत्तों पर तथा आजीवन पेंशन राशि का भुगतान किया जा रहा है।
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