Art and Culture: यह बस इक अंगड़ाई है, जीतनी बड़ी लड़ाई है
आर्ट एंड कल्चर: बॉलीवुड फिसला है, संभला है मगर अब खेल संभलने का उतना आसान नहीं रह गया है
Published: March 05, 2022 01:11:00 pm
सुशील गोस्वामी
(सदस्य, सीबीएफसी) एक है बॉलीवुड। एक सौ नौ सालों से जिंदगी की रगों में बहता हुआ। अपनी कथा-कहानियों से आम और खास को हंसाता-रुलाता, बहलाता, भिगोता, भटकाता, कहता हुआ। अपने संवादों से आमजन की अभिव्यक्तियों को आसानियां पहनाता हुआ। अपने नगमों से पर्व-तीज-त्योहारों पर, या यों ही-से दिनों पर परिचित-अनाम रंगों के मुलम्मे चढ़ाता हुआ।
कौन है जो बॉलीवुड के तिलिस्म में बंध थिएटर के अंधेरों में कभी फफक कर रोया न हो या ठठा कर हंसा न हो? अब अचानक, इसी बॉलीवुड पे नजरें तरेरी गई हैं, आंखें फेरी गई हैं। पाश्र्व में चलते साउथ को पलकों में बिठाया जा रहा। हर तरफ 'झुकेगा नईं' का एक अल्हड़ मौसम आया है जिसके बादल नभ से रीत नहीं रहे।
साउथ के विशुद्ध मसाले का देश से विदेशों तक ऐसा स्वाद चढ़ा है कि बॉलीवुड फीका बताया जाने लगा है। कहानियां घिसी लगने लगी हैं व बासी नायकों के मैनरिज्म चुक चुके मालूम होने लगे हैं। साउथ सिर चढ़ कर ऐन उस वक्त बोला है जब कोरोना-काल और लक्ष्मी बम, बेल बॉटम, गहराइयां सरीखे निहायत चलताऊ ओटीटी प्रदर्शनों ने मिलजुल कर बॉलीवुड के उत्साह व ऊर्जा को पस्त कर डाला है।
मगर रुकिए जरा। अभी-अभी, एक अच्छे-खासे वर्किंग डे की बीच दुपहर दिल्ली के कनॉट प्लेस स्थित एक सिनेमाघर को खचाखच भरा पाया गया है। जुनूनी दिग्दर्शक संजय लीला भंसाली अपने रंग, अपनी खुशबू अपने ही अलहदा आसमान में भरे लौटे हैं - बॉलीवुड की इज्जत लौटाते हुए, आस जगाते हुए, नई पेशकश 'गंगूबाई काठियावाड़ी' के साथ।
बॉलीवुड के वैभव, दमखम, जादू को वापसी के लिए मचलता देखना है, तो बड़े पर्दे हो आइए- संजय लीला के इस धूसर-सफेद रंगों के मेलोड्रामा को निहारने के लिए। जैसे अमिताभ बच्चन ने हमेशा, चाहे जैसा दृश्य हो, पूरी श्रद्धा व प्रतिबद्धता से निभाया है, संजय लीला भी तयशुदा स्क्रिप्ट पर पूरी प्रतिबद्धता उड़ेल देते हैं। सौ फीसदी आत्मविश्वास उनके दृश्य-दृश्य में नुमायां रहता है। आलिया की उम्र और जरूरत से अधिक परिपक्व अभिव्यक्ति का अंतर खलता है, नेहरू से बात करने का अंदाज अखरता है, उसके किरदार की बातों का हर दफा वन-साइडेड असर चुभता है, पर भंसाली का उजाला इतना चमकीला है कि तमाम अंधेरे ढंके से मालूम होते हैं।
भंसाली एक बहाना हैं। बॉलीवुड ने कच्ची गोलियां नहीं खेली हैं। वह फिसला है, वह संभला है। मगर अब खेल संभलने का उतना आसान नहीं रह गया है। सिनेमा के दायरे व दर्शक की उम्मीदों में बहुत-बहुत इजाफा हो चुका है। दर्शक तब ही सिनेमाघर की ओर खिंचेगा जब उसके ढाई घंटों, दो-चार सौ रुपयों का रिटर्न मंत्रमुग्ध, किंकत्र्तव्यविमूढ़ कर देने वाला होगा। हॉलीवुड या रीजनल सिनेमा हिंदी में अवतार लेते देर नहीं लगाता अब। भाषा, स्थान की दीवारें ध्वस्त हैं सो अब संभलने का अर्थ है चौतरफा दुरुस्ती। फिर सदी-भर पुरानी साख भी है। झुंड, पठान, जर्सी, विक्रम वेधा, लाल सिंह चड्ढा, टाइगर और बहुत कुछ है जो उम्मीद की लौ जलाए हुए है।

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