दंगे चाहे कहीं भी हों, अधिकांश मामलों में प्रशासन की लापरवाही ही सामने आती है। छोटी सी बात को समय रहते सुलझाए जाने की प्रशासनिक विफलता बड़े दंगों का कारण बनती है। दिल्ली का जहांगीरपुरी इलाका हो या फिर राजस्थान में करौली और जोधपुर। पुलिस-प्रशासन से जुड़े लोगों की शुुरुआती ढिलाई साफ नजर आती है। दिल्ली में धार्मिक जुलूस बिना इजाजत कैसे निकला? जुलूस निकल भी गया तो उसे रोका क्यों नहीं गया? करौली में जुलूस के साथ पर्याप्त पुलिस क्यों नहीं थी? जोधपुर में एक दिन पहले रात को झंडा लगाने के मुद्दे पर हुए टकराव के बाद ईद के दिन पुलिस पर पथराव कैसे हो गया? आश्चर्य की बात तो ये है कि शहर में धारा 144 लागू होने के बावजूद ये सब हुआ। इन सवालों का जवाब तलाशे बिना दंगों को रोकना मुश्किल जान पड़ता है। सरकार में बैठे लोगो को गंभीरता से देखना होगा कि ऐसी लापरवाही आखिर बार-बार होती क्यों हैं? ऐसे में दूसरे सवाल का जवाब भी किसी से छिपा नहीं? दंगों के लिए सरकारों के साथ-साथ राजनीतिक दल और चंद धार्मिक नेता भी कम जिम्मेदार नहीं जो बेवजह अपनी बात पर अड़े रहते हैं। हालत यह है कि किसी दौर में गिने-चुने संवेदनशील शहरों में होने वाले दंगे अब किसी भी शहर को निशाना बना लेते हैं।
वोट बैंक की राजनीति भी दंगों के पीछे छिपे कारणों में से एक है। धर्म के नाम पर उन्माद का फायदा उठाने की चाह रखने वाले दल दंगों की आंच में राजनीतिक रोटी सेकने से बाज नहीं आते। सबसे अधिक नुकसान रोज कमाने-रोज खाने वालों को ही उठाना पड़ता है। जोधपुर समेत तमाम स्थानों पर हालात पर नियंत्रण के लिए सख्त कदम उठाने होंगे। दंगों को दुर्भाग्यपूर्ण बताने और शांति की अपील करने मात्र से कुछ नहीं होने वाला। दंगों को भड़काने में जिसकी भी भूमिका नजर आए उसके खिलाफ सख्त कार्रवाई होनी चाहिए।