ऐसे ही भड़काऊ बयानों को लेकर समुदाय विशेष में उपजे आक्रोश, हिंसा की घटनाएं और विदेश में भारत की छवि खराब होने से चिंतित भारतीय जनता पार्टी ने अपनी राष्ट्रीय प्रवक्ता नुपुर शर्मा और दिल्ली इकाई के मीडिया प्रभारी नवीन जिंदल नुपुर शर्मा के निलंबन और निष्कासन की सख्त कार्रवाई कर दी है। निश्चय ही यह सख्ती दूसरे दलों के लिए भी नसीहत है। लेेकिन सवाल यह भी कि क्या सियासतदानों को फिजां में जुबानी तीरों का जहर घोलने से रोकने के लिए सभी राजनीतिक दल सचमुच ऐसी ही सख्ती आगे भी जारी रखेंगे? यह सवाल इसलिए भी अहम है कि बार-बार यह सवाल उठता आया है कि कमोबेश सभी राजनीतिक दलों ने अपने प्रवक्ताओं को टीवी डिबेट में क्या बोलना है और क्या नहीं बोलना है इसकी समुचित ट्रेनिंग देनेे की व्यवस्था ही नहीं की। तभी तो मुद्दों पर बात करने के बजाए ऐसी डिबेट में माहौल ऐसा बनता दिखता है जैसे वे आए ही हंगामा बरपाने के लिए हों। वैसे यह अपेक्षा तो सबसे की ही जानी चाहिए कि किसी धर्म व समाज विशेष पर ऐसी बात न कही जाए और न ही लिखी जाए जिससे लोगों की भावनाओं को ठेस पहुंचती हो। तीर कमान से निकल जाए और बात जुबान से निकल जाए तो वापस नहीं होती। हमारे पुरखों की इस नसीहत को न जाने क्यों राजनीति में याद ही नहीं रखा जाता। और मौका चुनाव का हो तो कैसे-कैसे बयानबहादुर माहौल में वैचारिक प्रदूषण फैलाने में जुट जाते हैं इसके पिछले कई उदाहरण भी हमारे सामने हैं।
टीवी चैनल्स पर होने वाली बहस राजनीतिक दलों को अपना पक्ष रखने का मौका तो देती ही है जनसाधारण की किसी मुद्दे के पक्ष-विपक्ष में राय बनाने में अहम भूमिका निभाती है। चिंता की बात यह भी है कि अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर सोशल मीडिया का जमकर दुरुपयोग हो रहा है। भाजपा की इस प्रकरण में सख्ती की सराहना की जानी चाहिए। लेकिन सवाल यह भी है कि आखिर 'पार्टी लाइन' पर चलने की बातें राजनीतिक दलों के प्रवक्ताओं व नेताओं के लिए उपदेश ही बन कर क्यों रह जाती हैं।