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आर्थिक नीतियों में बदलाव का वक्त

locationनई दिल्लीPublished: Jul 14, 2020 04:48:13 pm

Submitted by:

shailendra tiwari

विकास की एकमात्र कसौटी कुछ लोगों की आय में बढ़ोतरी नहीं हो सकती | निरंकुश पू पूंजीवाद के परिणामस्वरूप सम्पत्ति पर धनाढ्य वर्ग का जन्मसिद्ध अधिकार सर्वमान्य नहीं है |

बिना सैनिटाइजर के किटाणु मारेगी यह मशीन, Coronavirus से होगा बचाव, ऐसी करती है काम

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प्रदीप एस मेेेेहता, महासचिव, कट्स इंटरनेशनल


भारत में कोरोना महामारी से निपटने में राज्यों ने सराहनीय कदम उठाए है | जांच की सुविधा से लेकर अस्पतालों और चिकित्सकों की उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए राजस्थान में भी सरकारी तंत्र के हर स्तर पर समन्वय स्थापित किये बिना ऐसा संभव नहीं था | देेेश भर में चुनौती अभी खत्म नहीं हुई है | स्वास्थ्य के मोर्चे के साथ -साथ आर्थिक मोर्चे पर भी सरकारों को निर्णायक कदम उठाने होंगे | प्रवासी मज़दूरों के लिए उचित आमदनी की व्यवस्था करने से लेकर अनौपचारिक, कुटीर, सूक्ष्म, और लघु व्यवसायों को पटरी पर लाने का बेड़ा भी राज्यों को ही उठाना होगा |

ऐसा करने के लिए राज्य सरकारों के सामने दो रास्ते है | पहला, सभी उद्योगों को सारे नियमों और क़ानूनों से कुछ समय के लिए छूट दे दी जाए, इस आशा के साथ कि ऐसी आज़ादी के मिलते ही व्यापारों की उत्पादकता कई गुना बढ़ जाएगी, और उनकी बढ़ती आय देश के आर्थिक विकास का ***** होगी | यह बात अलग है की इस बढ़ती आय का मूल्य मज़दूरों, आम नागरिकों, और पर्यावरण को चुकाना पड़ सकता है | हालाँकि इस सरल उपाय को कुछ राज्यों ने अमल करने का विचार किया है, इसके काफ़ी दूरगामी हानिकारक परिणाम हो सकते है |

बीते कुछ दशकों के अनुभव ने हमें सिखाया है की विकास की एकमात्र कसौटी कुछ लोगों की आय में बढ़ोतरी नहीं हो सकती | निरंकुश पूँजीवाद के परिणामस्वरूप सम्पत्ति पर धनाढ्य वर्ग का जन्मसिद्ध अधिकार सर्वमान्य नहीं है | बढ़ती असमानता, अत्यधिक प्रदूषण, सामाजिक अस्थिरता, और आमजन के लिए आधारभूत सुविधाओं के अभाव को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता | ऐसी व्यवस्था को बदलना होगा और भारत को आर्थिक लोकतंत्र बनाने के लिए अथक प्रयास करने होंगे | इसके लिए समाज, सरकार, और बाज़ार में सामंजस्य स्थापित करना आवश्यक है | यह रास्ता पहले के मुक़ाबले कठिन है पर अपनाना ही होगा |

परन्तु ऐसा करना बाएं हाथ का खेल नहीं है | सरकारों के पास अच्छे सुझावों की कमी नहीं है | इनको उचित सरकारी विभागों और जनता से परामर्श किये बग़ैर अमलीजामा पहनाना खतरे से ख़ाली नहीं होगा | यह अनुमान लगाना ज़रूरी है की इन उपायों का विभिन्न हितधारकों पर क्या प्रभाव पड़ेगा | किसे नफ़ा और किसे नुकसान होने की आशंका है | क्या कुछ ऐसे तरीके अपनाए जा सकते है की सरकारी उद्देश्यों को, कम से कम दुष्प्रभावों से, ख़ासकर कमज़ोर वर्गों पर, हासिल किया जा सके? बहुत समय तक हमने अपरिपक़्व आर्थिक नीतियों का, ग़रीबों, महिलाओं, मज़दूरों, और लघु व्यवसायों पर प्रतिकूल परिणामों को अनदेखा किया है | यह गलती दोहराना हमें बहुत महँगा पड़ सकता है |

इसके लिए हमें ढाँचागत सुधारों की आवश्यकता है | ऐसी प्रक्रिया को अपनाना और संस्थागत करना होगा जिससे की समस्या को सभी सरकारी और गैर सरकारी दृष्टिकोणों से परखा जा सके, और ऐसा समाधान निकाला जाए जिसमे ज्यादातर हितधारकों, खासकर कमज़ोर वर्गों की, सहमति हो | जो लोग सरकार तक अपनी बात पहुंचाने में असमर्थता महसूस करे, सरकार को चाहिए की वह उन लोगो तक पहुंचे, और उनकी व्यथा समझे | विभिन्न वर्गों को प्रस्तावित नीतियों से किस प्रकार लाभ या हानि हो सकती है, इसका स्पष्ट लेखाजोखा जनता में उपलब्ध करने से जवाबदेही के साथ साथ सरकार के प्रति जनता की विश्वसनीयता बढ़ेगी |
ऐसी व्यवस्था अपनाना कोई कपोल कल्पना नहीं वरन बेहद प्रासंगिक है |
काफ़ी देश और राज्य इसे अपनाने के लिए ठोस कदम उठा चुके है ।‌ बस अब ज़रुरत है इन्ही सुधारों को आगे बढ़ाने की | संशोधित सामाजिक जवाबदेही विधेयक, जो की प्रस्तावित एवं अमल में लाये गए नियमों और कानूनों का, विभिन्न सामाजिक वर्गों पर, प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष असर प्रकाशित करने के साथ इनपर जनता से परामर्श करना अनिवार्य करे, इसी राह पर अगला मील का पत्थर साबित हो सकता है | परंपरागत और डिजिटल माध्यमों के सही उपयोग से इसे क्रियान्वित किया जा सकता है |

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