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करवट बदल रहा समय

locationजयपुरPublished: May 22, 2020 08:03:49 am

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Gulab Kothari

सृष्टि प्रकृति और पुरुष का संघर्ष है। पुरुष सुर भी है और असुर भी। सुर एक चौथाई तथा असुर तीन चौथाई होते हैं एवं देवों से बलवान भी होते हैं। असुरों के कारण ही देवों की दिव्यता सिद्ध होती है।

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– गुलाब कोठारी

सृष्टि प्रकृति और पुरुष का संघर्ष है। पुरुष सुर भी है और असुर भी। सुर एक चौथाई तथा असुर तीन चौथाई होते हैं एवं देवों से बलवान भी होते हैं। असुरों के कारण ही देवों की दिव्यता सिद्ध होती है। असुरों से देवता सदा त्रस्त रहते हैं। इसीलिए अवतारों का भी महत्व है। कृष्ण कहते हैं-

‘परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्म संस्थापनार्थाय संभवामि युगे-युगे ॥’

सृष्टि में दुष्ट भी दुष्टता करते रहेंगे, देव भी मार्ग निकालते रहेंगे, समय-समय पर दुष्टता का हिसाब भी होता रहेगा। पुरुष रूप सूर्य जगत् का आत्मा है। पृथ्वी, मृत्युलोक तक आते-आते स्थूल रूप धारण कर लेता है। जहां प्रकाश है, वहां देव रहते हैं। अंधकार में असुरों का वास है। सूर्य अपने परिक्रमा पथ-अयन वृत्त-पर जहां-जहां पहुंचते हैं, असुर भागते जाते हैं। यही स्थिति पृथ्वी के परिक्रमा पथ-क्रांति वृत्त-पर सूर्य के प्रकाश पडऩे से होती है। सूर्य के आगे जाते ही पीछे अंधकार तैयार बैठा रहता है। अंधकार ही लक्ष्मी का कार्य क्षेत्र भी है। उल्लू प्रकाश में नहीं जी सकता। असुर और लक्ष्मी का सम्बन्ध अंधेरे की आसुरी वृत्तियों का ही पोषक है।

आज की जीवनशैली लक्ष्मी-प्रवृत्त है। सारे अनर्थ चरम पर हैं। सरस्वती का उपयोग ही प्रकाश के स्थान पर अर्थ प्राप्त करना ही रह गया है। साधुओं के परित्राण की जरूरत बढ़ती जा रही है। आज जो कुछ विश्व में हो रहा है, उसको इसी दृष्टि से देखना चाहिए। विज्ञान की और राजनीति की भाषा कुछ भी हो, रंग तो मूल में प्रकृति ही दिखा रही है। उद्योग-धन्धों के नुकसान की चिन्ता आम आदमी की नहीं दिखाई पड़ती। मानवता का ध्यान प्रवासी समुदाय की ओर है। जो पैदल घर लौट रहे हैं उनके कष्टों को देखा-सहा नहीं जा रहा। भूखे हैं, पांवों में छाले हैं, बीमार हैं, वाहन उपलब्ध नहीं है और उसके बाद भी लाखों-करोड़ की घोषणा करने वाली सरकारों पर उनको भरोसा नहीं हो रहा। अपने ही चुने हुए प्रतिनिधियों को विश्वासघाती मान रहे हैं। क्या मानवता की कराहट पर भी सियासत करना लोकतंत्र का स्वरूप होगा!

जो लोग अपने घरों के लिए निकल पड़े, वे नहीं लौटेंगे। भले ही राज्यों की सरकारें अपनी सीमाएं सील कर दें। आज नहीं कल, वे घर तो पहुंच ही जाएंगे। उनके पास ईश्वर की आस्था है। जो मार्ग में बिछड़ जाएंगे, उनकी आत्मा भी घर तक साथ जाएगी। इस देश की शक्ति तन और धन नहीं, मन है। जो सत्ता में उपलब्ध नहीं है। सत्ता तो आज की परिस्थितियों में अपना उल्लू सीधा करने से नहीं चूकेगी, यह बात जन-जन की चर्चा में भी आ चुकी है। जो शहर छोड़ चुके उनके राशन का अनाज भी कोई तो उठा रहा है। कई प्रकार के नकली बिल, विशेषकर चिकित्सा के नाम पर, बनते दिखाई दे रहे हैं। और भी न जाने क्या-क्या हो रहा है। राजनेताओं को इस बात की चिन्ता नहीं है कि जनता के मन से विश्वास डोल गया है।

परिणाम कुछ कह रहे हैं। जो मार्ग में हैं, इस दुर्दशा में भी रुकना नहीं चाह रहे। जो सीमा पर हैं, उनको लेकर राजनीति के अखाड़े व्यस्त हैं। कौन मर रहा है, सडक़ों पर प्रसव हो रहे हैं, उनकी बला से। जो अभी रवाना नहीं हुए उन्होंने भी अचानक हुंकार भरना शुरू कर दिया। गांव लौटने के लिए औद्योगिक शहरों में बड़े-बड़े प्रदर्शन, श्रमिकों के, होने लगे हैं। आश्चर्य यह है कि उनको विश्वास में लेने के बजाय, उन पर लाठियां बरसाई जा रही हैं। जले पर नमक छिडक़ रहे हैं। अपने ही देश में परदेशी नहीं, आतंकी हो गए हैं। क्या ये सरकार के विरुद्ध विष-वमन नहीं करेंगे? एक और काम गया, गांव गया और लावारिस की तरह लाठियों से पेट भर रहे हैं। उस देश में जहां तंत्र जनता के द्वारा और जनता के लिए है। आज सरकार के अलावा कौनसा तबका सुखी है? राहत के लाखों-करोड़ किसके पास पहुंच रहे हैं।

कोरोना इलाज बनकर आया है। जिस तरह के हालात भारत में प्रवासियों और श्रमिकों के हैं, कमोबेश वैसे ही हर देश में हैं। बाकी का पता नहीं, भारत में तो परिवर्तन का एक बड़ा दौर आता दिखाई पड़ रहा है। सत्ता की लूट, शिक्षित बेरोजगार और प्रवासी श्रमिकों का सत्ता से मोह भंग कुछ नया रंग लाता दिखाई पड़ रहा है। वोटों की राजनीति ने पहले ही देश को खण्ड-खण्ड कर दिया, बचा खुचा कोरोना के बाद समझ में आ जाएगा। प्रकृति न्याय करने निकल पड़ी है। दिवाली तक की विश्वभर में भविष्यवाणियां हो चुकी हैं। समय करवट बदल रहा है।

सरकार की नीतियां भी कुछ और ही कह रही हैं। राहत योजनाएं, भाजपा-कांग्रेस का संघर्ष, आयात-निर्यात, बैंकों का प्रदर्शन, खुदरा व्यापार के हालात, कृषि और पशुपालन की अनदेखी (कृषकों के साथ बीमा कम्पनियों का तांडव) अफसरों का वर्चस्व, जीएसटी, ऋण की किस्तें, हर अवसर पर कोई ना कोई नया कर लगाने की मानसिकता तथा जनता से बनाई गई अप्रत्याशित दूरी जैसे अनेक पहलू चर्चा में नए सिरे से आने लगे हैं। उच्च वर्ग पर नीतियां लागू नहीं होती। नेता-अधिकारी कानून से ऊपर हो गए। निम्न आय वर्ग भूखा मर रहा है। आधी आबादी गरीबी रेखा के नीचे। मध्यम वर्ग को ही प्रत्येक विभाग मार रहा है। इस बार उद्योग जगत लपेटे में आया है। सरकारें मजदूरों को लौटाने के प्रबन्ध कर रही हैं। इतने उग्र रूप को लेकर श्रमिक घर जाएगा, तो आसानी से लौटने वाला नहीं है। दिवाली भी हो सकती है और नहीं भी आ सकता। आएगा तब तक तो कच्ची बस्तियां भी पक्की बन चुकी होंगी।

अगले वर्ष की शुरुआत तक देश का एक नया स्वरूप उभरकर आ चुका होगा। नई ऊर्जा, नई दिशा और नई गति होगी। देश के पुराने ठेकेदार विदा हो जाएंगे। नई तकनीक के साथ देश फिर शिखर छुएगा।

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