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महामारी नीति सुधारने का वक्त

Published: Mar 23, 2015 12:49:00 am

भारत के स्वास्थ्य संबंधी विधि-विधान अपनी प्रकृति में “पुलिसिया” हैं, तथा उनके
केंद्र में जन स्वास्थ्य बहुत कम

Epidemic

Epidemic Policy


वरूण गांधी, सांसद
मनुष्यों में साधारण छींक के रूप में प्रकट होने वाला इनफ्लूएंजा तीन प्रकार का होता है। इनमें टाइप ए महामारी का कारण बन सकता है। 1918 में एच1एन1 इनफ्लूएंजा वायरस के कारण होने वाली इनफ्लूएंजा महामारी ने सुदूरवर्ती आर्कटिक और प्रशांत महासागरीय क्षेत्र समेत दुनिया भर में 50 करोड़ लोगों को चपेट में लिया था, जिसमें अंतत: 10 करोड़ अर्थात दुनिया की 5 प्रतिशत आबादी काल का ग्रास बन गई थी।

दुनिया की सबसे बड़ी चिकित्सकीय आहुति” के रूप में समझी जानी वाली इस महामारी ने 24 महीने में ही इतने लोगों को मौत की नींद सुला दिया था जितने लोग एड्स से तीन दशक में नहीं मरे हैं। भारत में भी आबादी का 5 प्रतिशत हिस्सा अर्थात एक करोड़ 70 लाख लोग मौत की चपेट में आए थे। प्रशांत महासागरीय क्षेत्र में यह महामारी नौरू तथा टोंगा क्षेत्र तक पहुंची जहां उसने 10 से 15 प्रतिशत आबादी को मौत की नींद सुला दिया।

वायरस ने प्रथम विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटेन और फ्रांस की तुलना में जर्मनी और आस्ट्रिया में अधिक लोगों की जान ली तथा रोगी बनाया, जिससे शक्ति संतुलन केंद्रीय शक्तियों के पक्ष में हो गया था। हाल में वर्ष 2006 में एवियन इनफ्लूएंजा वायरस ए/एच5एन1 वायरस ने महाराष्ट्र, गुजरात और मध्यप्रदेश में पॉल्ट्री किसानों को प्रभावित किया था। 2008-09 तक इस वायरस ने पश्चिम बंगाल, असम तथा सिक्किम में घरों में पाली जानी वाली मुर्गियों को भी चपेट में ले लिया था। तीन किमी. तक के दायरे में बड़े पैमाने पर मुर्गियों को मार दिए जाने से इस वायरस का मनुष्य तक फैलाव रोका जा सका था। दुनिया भर में 262 लोग मारे गए थे और 442 लोग संक्रमित हुए थे। वर्ष 2009 में एक और वायरस ए/एच1एन1, जो अत्यधिक संक्रमणशील तो था पर अपेक्षाकृत कम घातक था, पूरे उत्तरी अमरीका में फैला था। हाल तक, इससे 14000 लोग चपेट में आ चुके थे और 833 लोगों की मौत हुई थी, जिससे देश की अदालतें और नागरिक इससे निपटने की राष्ट्र की तैयारी के बारे में सवाल पूछ रहे हैं।

पड़ता है आर्थिक असर
महामारी, चाहे वह इबोला हो अथवा इनफ्लूएंजा, का घातक और आकस्मिक आर्थिक प्रभाव हो सकता है । लोगों को मौतों के साथ, महामारी से होने वाली सामाजिक और वित्तीय क्षति विनाशकारी हो सकती है। इस तरह की घटनाओं के प्रति सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रतिक्रिया भी सस्ती नहीं होती- दवाओं, डॉक्टर और हास्पिटल के लिए बजट आवंटन महंगा होता है। घरेलू एयरलाइन्स तथा पर्यटन उद्योग में तेज गिरावट आ सकती है जबकि जोखिम टालने की प्रवृत्ति के कारण अप्रत्यक्ष लागत बढ़ जाती है।

जोखिम से बचने के लिए लोगों का व्यवहार बदल जाता है। बाजार अथवा नौकरी पर जाने से बचने के क्रम में उपभोक्ता मांग घट जाती है। वल्र्ड बैंक ने 2003 मे “सार्स” (सीवियर एक्यूट रेस्पिटरी सिंडोम) के कारण चीन को आर्थिक क्षति का अनुमान 15 अरब डॉलर लगाया है तथा इसके कारण वैश्विक जीडीपी में गिरावट का अनुमान 33 अरब डॉलर लगाया गया है, जबकि सार्स ने मात्र 916 लोगों की जान ली थी। जाहिर है एक वैश्विक महामारी दुनिया भर में बड़ी मंदी का कारण बन सकती है। एक महामारी भय तथा स्वास्थ्य संसाधनों का संकट पैदा कर राजनीतिक तथा आर्थिक अस्थिरता को जन्म दे सकती है।

एक बेहतर सार्वजनिक स्वास्थ्य कानूनी ढांचा यह सुनिश्चित करता है कि सार्वजनिक संकट के समय सरकार की शक्तियां और दायित्व ठीक से परिभाषित रहें। वैधानिक ढांचे से सार्वजनिक स्वास्थ्य आपात स्थिति से निपटने के लिए स्थानीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सरकार की प्रतिक्रिया के दायरे को पारिभाषित करने में आसानी होती है। इस प्रकार की घटनाओं के दौरान और इसके पहले विशेष प्रकार के उपायों के लिए नीतिगत साक्ष्यों की जरूरत होती है।

जैसे, कार्यस्थल पर वैक्सीनेशन करवाया जाना चाहिए अथवा नहीं? अगर हां, तो क्या इसका लक्ष्य कोई विशिष्ट उम्र-वर्ग होना चाहिए? क्या स्कूल बंद करने से वायरस के रोकथाम में मदद मिलेगी और स्वास्थ्य देखभाल बजट में बचत होगी, जबकि बच्चों की देखभाल का बजट बढ़ जाएगा? ब्रूकिंग्स इंस्टीट्यूशन के अनुसार, अमरीका में कक्षा 12 तक के सभी स्कूल दो सप्ताह के लिए बंद करने की लागत 5 से 23 अरब डॉलर होगी। अगर यह समय अवधि 4 सप्ताह कर दी जाए तो यह लागत 47 अरब डॉलर तक बढ़ सकती है। क्या हम प्रत्येक सर्दी और गर्मी के मौसम में इस तरह के उपायों को बार-बार अपना सकते हैं?

सार्वजनिक स्वास्थ्य दृष्टिकोण हो
भारत के स्वास्थ्य संबंधी विधि-विधान अपनी प्रकृति में “पुलिसिया” हैं, तथा उनके केंद्र में जन स्वास्थ्य बहुत कम है। महामारी फैलने की स्थिति में किसी ठोस सार्वजनिक स्वास्थ्य दृष्टिकोण का इसमें अभाव है। महामारी की स्थिति में स्थानीय जिला कलक्टर को केंद्रीय समन्वयन प्रभारी तथा मुख्य मेडिकल अधिकारी को सहयोगी की भूमिका प्रदान की गई है, उनकी भूमिकाओं तथा जिम्मेदारियों को बेहतर तरीके से पारिभाषित और विभाजित किए जाने की जरूरत है।

सही जनस्वास्थ्यकारी कानूनों के केंद्र में महामारी हो, ऎसे में 1897 का संक्रमण रोग अधिनियम पुराना और पुरातन लगता है। सबसे प्रमुख जन स्वास्थ्य अधिनियम आधी शताब्दी से भी अधिक पुराना है। जिन अधिनियमों की यहां चर्चा की गई है वे लघुस्तरीय संक्रमण तथा आपदाओं से निपटने में तो सक्षम हैं पर आर्थिक -सामाजिक बिखराव और महामारी स्तरीय स्वास्थ्य देखभाल से निपटने में सक्षम नहीं हैं। इन दशाओं में मानवाधिकारों की अनदेखी की गई है। नगर निगम के स्तर पर तो स्थिति और भी शोचनीय है – दिल्ली नगर निगम अधिनियम तो फिर भी महामारी की स्थिति में निपटने के लिए काफी तैयारियों का जिक्र करता है पर मणिपुर और कर्नाटक के निगमों में ऎसा नहीं है।


सभी स्वास्थ्य प्रावधानों को एक साथ एकत्र कर एक विधान के रूप में व्यवस्थित किए जाने की तत्काल जरूरत है, जिससे इनके क्रियान्वयन में किसी तरह की बाधा न आए। हमें निर्णायक स्वास्थ्य विधानों और क्रियान्वयन नियामक एजेंसियों की जरूरत है जिनका असर हो सके। ब्रिटेन की “नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ क्लिीनिकल एक्सीलेंस” की तरह एक “जन स्वास्थ्य मानक एजेंसी” जो कि मानक तय कर सके तथा उनके क्रियान्वयन में एकरूपता स्थापित कर सके। “राष्ट्रीय स्वास्थ्य विधेयक” में शीघ्रता करने की जरूरत के साथ, अंतरराज्यीय संवाद के लिए राष्ट्रीय विकास परिषद की भूमिका का भी उपयोग जरूरी होगा।

एक रणनीतिक योजना की जरूरत
भारत में संक्रमणकारी महामारी जैसी स्थितियों में रोकथाम तथा उनसे बचने के लिए पांच स्तरीय रणनीति के क्रियान्वयन की जरूरत है। सबसे पहले मानव संक्रमण की संभावना को कम करना होगा, इसके लिए वायरस पैदा होने की संभावनाओं को कम करना होगा। एक पूर्व चेतावनी प्रणाली को मजबूत करना होगा जिससे प्रभावित जिलों, स्थानीय स्वास्थ्य अधिकारियों तथा मंत्रालय के पास समस्त आंकड़े तथा क्लिीनिकल नमूने हों जिससे स्थिति का सटीक मूल्यांकन किया जा सके। रोक-थाम के लिए अभियान योजनाएं तेजी से बनाई जानी चाहिए, उनमें तीव्रता लाई जाना चाहिए जिससे फै लाव रोका जा सके। स्थानीय क्षमताओं को विश्व स्वास्थ्य संगठनों जैसे संगठनों से जोड़कर विकसित किया जाना चाहिए और महामारी संबंधी योजनाएं जांची-परखी तैयार होना चाहिए। स्थानीय और वैश्विक वैज्ञानिक शोधों और विकास को समन्वित किया जाए जिससे वैक्सीन बने, उनकी जांच हो तथा वे त्वरित रूप से उचित दामों पर उपलब्ध हों।


एनजीओ के दानवीकरण किए जाने के बजाय, सिविल सोसायटी के साथ सहयोग को और बढ़ाए जाने की जरूरत है। ब्रिटेन की राष्ट्रीय महामारी नीति के ढांचे में जनता तथा सिविल सोसायटी को नीतियों, योजनाओं तथा व्यावहारिक चुनावों के विकास में भागीदार बनाया जाता है, जिससे जनता को उन कठिन निर्णयों के बारे में संवेदनशील बनाया जा सके जो कि लिए जाने हैं। ऎसी स्थितियों में अगर परामर्श और सूचनाएं मांगे जाने पर हमेशा उपलब्ध रहें तो उससे नागरिक अव्यवस्था फैलने के डर को काफी कम किया जा सकता है। इन इरादों के साथ विधिक ढांचे का एकीकरण यह सुनिश्चित करेगा कि सार्वजनिक स्वास्थ्य के संकट के पहले, उस दौरान तथा बाद में उचित स्वास्थ्य देखभाल उपलब्ध रहे।

महामारी से लड़ने के लिए भारत में कई कानून हैं। महामारी बीमारी अधिनियम – 1897, पशुधन आयात अधिनियम – 1898, दवा तथा सौंदर्य प्रसाधन अधिनियम 1940 आदि। राष्ट्रीय स्वास्थ्य अधिनियम, 2009 केंद्रीय सरकार को यह अधिकार देता है कि वह प्रत्येक पांच वर्ष मे बंदरगाहों, नाविकों आदि के अस्पतालों को संक्रमण निरोधी बनाए जाने तथा दवाओं और वैक्सीन की निगरानी तथा उनकी मात्रा प्रबंधन के नियमों, मानकों तथा प्रोटोकॉल्स की प्रत्येक पांच वर्ष में समीक्षा करेगी।

विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कुछ खास सार्वजनिक स्वास्थ्य उपायों को पारिभाषित किया है, जिनका पारदर्शी मूल्यांकन सुनिश्चित करने के लिए नीति बनाई जाने की जरूरत है। इसमें संक्रमित व्यक्ति का अलग रखा जाना अथवा उसको संक्रमणमुक्त किया जाना, यात्रा तथा आवागमन संबंधी प्रतिबंध, शिक्षण संस्थाओं को बंद किए जाने, सामूहिक रूप से एकत्र होने पर निषेध, दवाओं तथा वैक्सीनों की उपलब्धता तथा निजी भवनों का अस्पताल के रूप में उपयोग आदि शामिल हैं।

भारत के स्वास्थ्य संबंधी विधि-विधान अपनी प्रकृति में “पुलिसिया” हैं, तथा उनके केंद्र में जन स्वास्थ्य बहुत कम है। महामारी फैलने की स्थिति में किसी ठोस सार्वजनिक स्वास्थ्य दृष्टिकोण का इसमें अभाव है। महामारी की स्थिति में जिम्मेदार स्थानीय लोगों की भूमिका और स्पष्ट कार्यविभाजन जरूरी है।

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