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विकास के पश्चिमी मॉडल पर पुनर्विचार का वक्त

शहरीकरण को आर्थिक विकास से जोडऩे के दावे पर सवाल...अगर नेता बुनियादी कमियों को पहचानने और दूर करने में विफल होते हैं, तो नेताओं को केवल खुद को दोष देना होगा, न कि महामारी को।

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विकास के पश्चिमी मॉडल पर पुनर्विचार का वक्त

विकास के पश्चिमी मॉडल पर पुनर्विचार का वक्त

प्रदीप मेहता (लेखक 'कट्स इंटरनेशनल' से जुड़े हैं)

इतिहास हमें सिखाता है कि मृत्यु की तरह महामारियां भी निश्चित हैं। दुख की बात है कि हमने इतिहास से सीखना बंद कर दिया है। महामारियां न केवल हमारे बुनियादी स्वास्थ्य ढांचे को परखती हैं, बल्कि हमारे विकास के आदर्श, समानता और गरीबी की धारणाओं को भी परखती हैं। हम इन सभी क्षेत्रों में फिसड्डी साबित हुए हैं। इसीलिए हो रहे 'नरसंहार' के लिए अकेले महामारी को दोष देना आसान जरूर है, लेकिन यह ठीक नहीं है। भारत में वर्षों से पौष्टिक आहार और गरीबी उन्मूलन जैसे मुद्दे वोट बटोरने के सिर्फ नारे रह गए हैं। अमरीकी महामारी विज्ञानी जोसेफ गोल्डबर्गर ने 1915 में पेलाग्रा महामारी से उबरने में पौष्टिक आहार के महत्त्व पर प्रकाश डाला। गोल्डबर्गर को राजनीतिक नेताओं से अत्यधिक प्रतिरोध का सामना करना पड़ा। वर्षों बाद, उन्हें इस क्षेत्र में अग्रणी के रूप में पहचाना गया। यह वाकया हमारे नेताओं के लिए एक सबक की तरह मानना चाहिए। जानकारों ने ग्रामीण भारत में ही गरीबी से लडऩे की बजाय शहरीकरण को उपयुक्त माना है। इन्हें इतिहासकार आर.जे. इवांस की 1987 की किताब 'डेथ इन हैम्बर्ग' पर गौर फरमाना चाहिए। यह उस हैजा महामारी के बारे में है, जिसने जर्मन शहर में छह सप्ताह में लगभग 10,000 लोगों की जान ले ली थी। इवांस ने शहरी गरीबों के लिए साफ पानी, ताजी हवा और स्वच्छ भोजन के अभाव के बीच महामारी के संबंध पर प्रकाश डाला। अत: शहरीकरण को आर्थिक विकास से जोडऩे वाले हमारे दावों पर फिर से विचार करने की आवश्यकता है।

पश्चिम में महामारियों ने सीवरेज, जल आपूर्ति और कचरा-निपटान प्रणालियों में सुधार लाने के उद्देश्य से दीर्घकालिक सार्वजनिक स्वास्थ्य परियोजनाओं के निर्माण का मार्ग प्रशस्त किया है। ट्रिकल-डाउन अर्थशास्त्र की तरह, आमतौर पर यह माना जाता है कि इस तरह के उपायों से अंतत: गरीबों को लाभ होगा। हालांकि, अर्थशास्त्र की तरह ही, ट्रिकल-डाउन स्वास्थ्य भी एक मिथक लग रहा है, जिसका लाभ ज्यादातर प्रभुत्व वर्ग को ही होता है। अमीर देशों में महामारी अश्वेतों और गरीबों को असमान रूप से प्रभावित कर, उनके सर्वांगीण विकास के दावों को मुंह चिढ़ा रही है। हममें से जो आंख बंद करके पश्चिमी विकास मॉडल को बढ़ावा दे रहे हैं, उन्हें पुनर्विचार की आवश्यकता है।

महामारी के प्रसार को रोकने के लिए व्यापार, आर्थिक गतिविधियों और रोजगार पर प्रतिबंध आम उपाय रहे हैं। जैसा कि भारत में प्रवासी श्रमिकों की पीड़ा से स्पष्ट है, ये गरीबों पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं। दुर्भाग्य से, आर्थिक प्रतिकूलताओं का महामारी अध्ययनों में ना के बराबर का उल्लेख मिलता है। 1918 इन्फ्लूएंजा महामारी के आर्थिक प्रभावों पर फेडरल रिजर्व बैंक ऑफ सेंट लुइस की 2007 की रिपोर्ट ने यह निष्कर्ष निकाला है कि अर्थव्यवस्था पर अधिकांश प्रभाव 'अल्पकालिक' थे। इस तरह के अध्ययन महामारियों के व्यापक असमानताओं और अन्यायों पर दीर्घकालिक प्रभाव की अवहेलना करते हैं। भारत में भी कई विद्वानों ने अर्थव्यवस्था पर कोरोना महामारी के नगण्य दुष्प्रभाव की वकालत की है, यह उपयुक्त नहीं है।

लेखक लौरा स्पिननी ने अपनी पुस्तक 'पेल राइडर: द स्पैनिश फ्लू ऑफ 1918 एंड हाउ इट चेंज्ड द वल्र्ड' में 100 साल पुरानी महामारी के दौरान भारतीयों के बीच इसी तरह के सहयोग की बात कही है, जिसने कालांतर में कुशासन के खिलाफ जनांदोलन का रूप लिया और स्वतंत्रता में योगदान दिया। कुछ ऐसा ही सहयोग हमारे नागरिकों ने कोरोना महामारी से लड़ते वक्त दिखाया है। अगर नेता बुनियादी कमियों को पहचानने और दूर करने में विफल होते हैं, तो नेताओं को केवल खुद को दोष देना होगा, न कि महामारी को।